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सम्यक्त्वपूर्वक व्रतका उपदेश हे भाई ! आत्माको भूलकर भवमें भटकते अनन्तकाल पीत र गया, उसमें अतिमूल्यवान यह मनुष्य अवतार और धर्मका ऐसा दुर्लभयोग तुझे माप्त हुआ, तो अब परमात्मा जैसा ही तेरा जो स्वभाव उसे दृष्टिमें लेकर मोक्षका साधन कर, प्रयत्नपूर्वक सम्यक्त्व प्रगट कर, शुदोपयोगरूप मुनिधर्मकी उपासना कर, और जो इतना न बन सके -
तो श्रावकधर्मका जरूर पालन कर । RXXXXXXXXXXX
X XXXXXXXXX सम्पाप्तेऽत्रभवे कथ कथमपि द्राधीयसाऽनेहसा । मानुष्ये शुचिदर्शने च महता कार्य तपो मोक्षदम ॥ नो चेल्लोकनिषेधतोऽथ महतो मोडादशक्रय । सम्पयेत न तत्तदा गृहवतां षटकर्म योग्य व्रतं ॥ ४ ॥
अनादिकालसे इस संसारमें भ्रमण करते जीवको मनुष्यपना प्राप्त करना कठिन है! और उसमें भी सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति अति दुर्लभ है। इस भवमें भ्रमण करते करते दीर्घकालमें ऐसा मनुष्यपना और सम्यग्दर्शन प्राप्त करके उत्तम पुरुषोंको तो मोक्षदायक ऐसा तप करना योग्य है अर्थात् मुनिदशा प्रगट करना योग्य। मौर जो लोकके निषेधसे, मोहकी तीव्रतासे और निजकी अशक्तिसे मुनिपना नहीं किया जा सके तो गृहस्थके योग्य देवपूजा आदि षटकर्म तथा प्रतोंका पालन करना चाहिये।