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________________ भावकधर्म-प्रकाश __ यदि पापका आस्रव मझे रुक गया है तो मुझे मेरे स्वरूपकी सम्पदा प्राप्त होगी, वहाँ अन्य सम्पदाका मुझे क्या काम ! और जो मुझे पापका मालब हो रहा है तो ऐसी सम्पदासे मुझे क्या लाभ है? जिस सम्पदाके मिलनेसे पाप बढ़ता हो और स्वरूपकी सम्पदा लुटती हो ऐसी सम्पदा किस कामकी ?-स प्रकार दोनों तरहसे सम्पदाका असारपना जानकर धर्मी उसका मोह छोड़ता है । जो मात्र लक्ष्मीकी लोलुपताके पापभावमें जीवन बिता दे और आत्माकी कोई जिज्ञासा न करे ऐसा जीवन धर्मीका अथवा जिज्ञासुका नहीं होता । अहा; जिसे सर्वचकी महिमा आयी है, अन्तरराष्टिसे आत्माके स्वभावको जो साधते हैं, महिमापूर्वक वीतराग मार्गमें जो आगे बढ़ते हैं, और तीन राग घटनेसे जिन्हें श्रावकपना प्रगट हुमा हैऐसे श्रावकके भाव कैसे हों उसकी यह बात है। सर्वार्थसिद्धिके देवकी अपेक्षा जिसकी पदवी. ऊँची है, स्वर्गके इन्द्रकी अपेक्षा जिसका आत्मसुम्य अधिक है-ऐसी आवक दशा है। स्वभावके सामर्थ्यका जिसे भान है, विभावकी विपरीतता समझता है और परको पृथक् देखता है, ऐसा श्रावक रागके त्याग द्वारा अपने में क्षण-क्षण शुद्धताका दान करता है और बाह्यमें अन्यको भी रत्नत्रयके निमित्तरूप शास्त्र भादिका दान करता है। ऐसा मनुष्य-भव प्राप्त कर, आत्माकी जिज्ञासा कर उसके मानकी कीमत भानी चाहिये, श्रावकको स्वाध्याय, दान आदि शुभभाव विशेषरूपसे होते है। जिसे शानका रस हो, प्रेम हो, वह हमेशा स्वाध्याय करे; नये-नये शानोंका स्वाध्याय करनेसे ज्ञानकी निर्मलता बढ़ती जाती है, उसे नये-नये वीतरागभाष प्रगट होते जाते हैं। अपूर्व तत्त्वके श्रवण और स्वाध्याय करनेसे उसे ऐसा लगता है कि महो, माज मेरा दिन सफल हुआ ! छह प्रकारके अन्तरंग तोंमें ध्यानके पभात् दूसरा नंबर स्वाध्यायका कहा है। भावकको सब पक्षोंका विवेक होता है। स्वाध्याय मादिकी तरा देवपूजा मादि कार्योंमें भी यह भक्तिसे वर्तता है। भावकको भगवान् सर्वदेव प्रति परम प्रीति हो....अहो, यह तो इष्ट ध्येय है ! इस प्रकार जीवनमें वह भगवानको तो इच्छता है। चलते-फिरते प्रत्येक प्रसंगमें उसे भगवान याद माते है। यह नदीके झरनेकी कल-कल मावाज सुनकर कहता है कि हे प्रभो! आपने पूजीका त्याग कर दीक्षा ली इससे मनाथ हुई यह पृथ्वी कलरव करती विलाप करती है और उसके मासुमोंका यह प्रवाह है। वह भाकाशमें सूर्य-चन्द्रको देखकर कहता है कि प्रभो ! मापने शुक्ल-ध्यान द्वारा घातिया कमीको जब भस्म किया तब उसके स्फस्लिग
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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