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श्रावकधर्म-प्रकाश ] ... भाई ! संसारमें तो कौवे-कुत्ते, कीड़ी-मकोड़े इत्यादि अनन्त जीव हैं, परन्तु जैनदर्शन प्राप्त कर जो जोव पवित्र सम्यग्दर्शन भादि रत्नत्रयकी आराधना करते हैं वे ही जीव शोभनीक हैं । सम्यग्दर्शन बिना पुण्य भी प्रशंसनीय या वांछनीय नहीं है। जगत्में मिथ्यादृष्टि बहुत हों और सम्यग्दृष्टि चाहे थोड़े हों-उससे क्या ? जैसे जगतमें कोयला बहुत हो और हीरा क्वचित् हो, उससे क्या कोयलेकी कीमत बढ़ गई ? नहीं, थोड़ा हो तो भी जगमगाता हीरा शोभता है, उसी प्रकार थोड़े हों तो भी सम्यग्दृष्टि जीव जगतमें शोभते हैं। हीरे हमेशा थोड़े ही होते हैं। जैनधर्मकी अपेक्षा अन्य कुमतके माननेवाले जीव यहाँ बहुत दिखते हैं उससे धर्मात्माको कभी ऐसा सन्देह नहीं होता है कि वे कुमत सच्चे होंगे! वह तो निःशंकरूपसे और परमप्रीतिसे" जनधर्मको अर्थात् सम्यग्दर्शनादि रत्नभयको आराधता है । और ऐसे धर्मी जीघोंसे ही यह जगत शोभित हो रहा है। - सर्वशदेवके कहे हुए पवित्र दर्शनमें जो प्रीतिपूर्वक स्थिति करता है अर्थात् निश्चलतासे शुद्ध सम्यकदर्शनको आराधता है वह सम्यक्दृष्टि जीव अकेला हो तो भी जगतमें प्रशंसनीय है। चाहे कदाचित् पूर्वके कोई दुष्कर्मके उदयसे वह दुखित हो बाहरकी प्रतिकूलतासे भरा हुआ हो, निर्धन हो, काला-कुबड़ा हो, तो भी अन्तरंगकी अनन्त चैतन्यऋद्धिका स्वामी वह धर्मात्मा परम आनन्दरूप अमृतमार्गमें स्थित है। करोड़ों-अरबोंमें वह अकेला हो तो भी शोभता है, प्रशंसा पाता है। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें समन्तभद्रस्वामी कहते हैं कि-जो जीव सम्यग्दर्शनसम्पन्न है वह चांडालके देहमें उत्पन्न हुआ हो तो भी गणधरदेव उसे 'देव' कहते हैं। जैसे भस्मसे ढंके हुए अंगारेमें अन्दर प्रकाश-तेज है, उसी प्रकार चांडालकी देहसे ढंका हुआ वह आत्मा अन्दर सम्यग्दर्शनके दिव्य गुणसे प्रकाशित हो रहा है।
सम्यग्दर्शनसम्पनमपि मातङ्गदेह ।
देवा देवं विदुर्भस्मगूढाकारान्तरौजसं ॥ २८ ॥ सम्यग्दृष्टि जीव गृहस्थ हो तो भी मोक्षमार्गमें स्थित है। उसे भले ही बाहरकी . प्रतिकूलता कदाचित् हो, परन्तु अन्दरमें तो उसे चैतन्यके आनन्दकी लहर है; इन्के वैभवमें भी जो आनन्द नहीं उस आनन्दका वह अनुभव करता है। पूर्व कर्मका उदय : उसे नहीं डिगा सकता । .षद सम्यक्त्वमें निपल है। कोई जीव तिर्यच.. हो और सम्यग्दर्शन प्राप्त कर चुका हो, रहनेका मकान न हो, तो भी वह आत्मगुणोंसे