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धर्मके आराधक सम्यग्दृष्टिकी प्रशंसा
[ श्रावकधर्म-प्रकाश
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जगत में सर्वज्ञका अनुसरण करने वाले सम्यग्दृष्टि जीव तो बहुत थोड़े हैं, और उनसे विरुद्ध मिथ्यादृष्टि जीव बहुत हैं, ऐसा किसीको लगे तो कहते हैं कि हे भाई! आनन्ददायक ऐसे अमृतपथरूप मोक्षमार्ग में स्थित सम्यग्दृष्टि कदाचित् एक ही हो तो वह अकेला शोभनीक और प्रशंसनीय है, और मोक्षमार्गसे भ्रष्ट ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव बहुतसे होवें तो भी वे शोभनीक नहीं। ऐसा कहकर सम्यक्त्वकी आराधना में उत्साह उत्पन्न करते हैं ।
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एकोप्यत्र करोति यः स्थितिमतिं प्रीतः शुचौ दशने सः श्लाघ्यः खल्ल दुःखितौप्युदयतो दुष्कर्मणः प्राणिभृत् । अन्यः किं प्रचुरैरपि प्रमुदितेः अत्यन्तदूरीकृत स्फीतानन्दभरप्रदामृतपथः मिथ्यापथप्रस्थितैः ॥ २ ॥
देखिये, इस सम्यग्दर्शनकी विरलता बताकर कहते हैं कि, इस जगतमें अत्यन्त प्रीतिपूर्वक जो जीव पवित्र जैनदर्शनमें स्थिति करता है अर्थात् शुद्ध सम्यक्दर्शनको निश्चलरूपसे आराधता है वह जीव चाहे एक ही हो और कदाचित् पूर्व कर्मोदयसे दुःखी हो तो भी वह प्रशंसनीय है, क्योंकि सम्यग्दर्शन द्वारा परम आनन्ददायक अमृतमार्ग में वह स्थित है । और जो अमृतमय मोक्षमार्गले भ्रष्ट हैं और मिथ्यामार्ग में स्थित हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव बहुत होवें और शुभकर्मसे प्रमुदित ह तो भी उससे क्या प्रयोजन है- यह कोई प्रशंसनीय नहीं ।