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________________ भावपर्म प्रकाश मात्र जगतके जीवोंको लोभरूपी पापके कुएँसे निकालने और धर्म में लगाने हेतु करुणापूर्वक उपदेश दिया है। जिसका पत्थर जैसा हदय होवे उसकी भित्र बात है, परन्तु फूलकी कली जैसा कोमल जिसका हृदय हो उसे तो इस वीतरागी उपदेशकी गुंगार सुनते ही प्रसन्नता हो उठेगी: जिनेन्द्र भक्तिवंत तो आनन्दित होगा। परन्तु जिस प्रकार उल्लूको अथवा घुग्घूको सूर्यका प्रकाश अच्छा नहीं लगता है, उसे तो अंधेरा अच्छा लगता है, उसी प्रकार चैतन्यका प्रकाश करनेवाला यह वीतरागी उपदेश जिसे नहीं रुचता वह भी मिथ्यात्वके घोर अन्धकारमें पड़ा हुआ है। जिज्ञासुको तो ऐसा उल्लास आता है कि अहो, यह तो मेरे चैतन्यका प्रकाश करने वाली अपूर्व बात है। तीनलोकके नाथ जिनदेव जिसमें विराजमान होते हैं उसकी शोभा हेतु धर्मी भक्तोंको उल्लास होता है। वादिराज स्वामी कहते हैं-प्रभो! आप जिस नगरीमें मवतार लेते हैं वह नगरी सोनेकी हो जाती है, तो ध्यान द्वारा मैंने मेरे हृदयमें आपको स्थापन किया और यह शरीर बिना रोगके सोने जैसा न होवे यह कैसे हो सकता है ? और आपको आत्मामें विराजमान करते ही आत्मामें से मोहरोग नष्ट होकर शुद्धता न होवे यह कैसे बने ? धर्मी श्रावकको, उसीप्रकार धर्मके जिज्ञासु नैनको ऐसा भाव आता है कि महो, मैं मेरे वीतरागस्वभावके प्रतिबिम्बरूप इस जिनमुद्राको प्रतिदिन देख। जिसप्रकार माताको बिना पुत्रके चैन न पड़े उसी प्रकार भगवानके विरहमें भगवानके दर्शन बिना भगवानके पुत्रोंको-भगवानके भक्तोंको चैन नहीं पड़ता। घेलना रानी श्रेणिक राजाके राज्यमें आई परन्तु श्रेणिक तो बौद्ध धर्मको मानता था, इसलिये उसे वहाँ जैनधर्मकी छटा नहीं दिखी, इस कारण बेलनाको किसी प्रकार चैन नहीं पड़ा, आखिर में राजाको समझाकर बड़े-बड़े जिन मन्दिर बनवाए और श्रेणिक राजाको भी जैनधर्म ग्रहण करवाया। इसीप्रकार हरिषेण चक्रवर्तीकी भी कथा आती है। इनकी माता जिनदेवकी विशाल रथयात्रा निकालनेकी मांग करती रहीं परन्तु दूसरी रानियोंने उस रथको रुकवा दिया इसलिये हरिषेणकी माता ने अनशनकी प्रतिज्ञा ली थी कि मेरे जिनेन्द्र भगवानका रथ धूमधामसे निकलेगा तभी मैं आहार लूंगी ।-आस्बिरमें उसके पुत्रने चक्रवर्ती होकर बड़ी धूमधामसे भगवानकी रथयात्रा निकाली। अकलंक स्वामीके समयमें भी ऐसी ही पात दुई और उन्होंने बौद्ध गुरुको वाद-विवादमें हराकर भगवानकी रथयात्रा निकलवायी और जैनधर्मकी बहुत प्रभावनाकी। (इन तीनोंके-चेलनारानी, हरिषेण चक्रवर्ती भौर अकलंक स्वामीके धार्मिक नाटक सोनगढ़में हो चुके है।) इसप्रकार धर्मी
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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