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[ भावकधर्म-प्रकार मेरे पर क्रोध न करें, क्योंकि मैं तो मुनि हूं; मुनिके पास तो यही वीतरागी उपदेश होता है, कोई रागके पोषणकी बात मुनिके पास नहीं होती। उसी प्रकार यहाँ मोक्षके पुरुषार्थ में पुण्यका निषेध किया गया है, वहाँ रागकी रुचिवाले किसी जीवको वह न रुचे तो क्षमा करना, क्योंकि संतोंका उपदेश तो मोक्षकी प्रधानताका है इसलिये उसमें रागको आदरणीय कैसे कहा जाय? भाई, तुझसे संपूर्ण राग अभी चाहे न छूट सके, परन्तु यह छोड़ने योग्य है ऐपा सच्चा ध्येय तो पहले ही ठीक कर। ध्येय सच्चा होगा तो वहाँ पहुंचेगा। परन्तु ध्येय ही खोटा रखोगे-रागका ध्येय रखोगे तो राग तोड़कर वीतरागता कहाँसे लाओगे ? अतः सत्यमार्ग वीतरागी संतोंने प्रसिद्ध किया है।
___ सर्पक्षताको साधते-साधते वनविहारी संत पद्मनंदी मुनिराजने यह शास रचा है, वे भी आत्माकी शक्तिमें जो पूर्ण आनन्द भरा है उसकी प्रतीति करके उसमें लीन होकर बोलते थे, सिद्ध भगवानके साथ स्वानुभव द्वारा बात करते थे और सिद्धप्रभु जैसे अतीन्द्रिय-आनन्दका बहुत अनुभव करते थे, तब ही उन्होंने भव्य जीवों पर करुणा करके यह शास्त्र रचा है। उसमें कहते हैं कि अरे जीव! सबसे पहले तू सर्वदेवको पहिचान । सर्पक्षदेवको पहिचानते ही तेरी सच्ची जाति तुझे पहिचानने में मा सकेगी।
पन्दना पदप्रायश्यक
स्वाध्याय