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[ श्रावकधर्म-प्रकाश
अधिकार पर प्रवचन
है । पूर्वमें दो बार (धीर सं० २४७४ तथा २४८१ में ) इस हो चुके हैं। श्रीमद् राजवन्द्रजीको यह शास्त्र बहुत प्रिय था, उन्होंने इस शास्त्रको "" वनशास्त्र कहा है, और इन्द्रियनिग्रहपूर्वक उसके अभ्यासका फल अमृत है-ऐसा कहा है ।
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देश-व्रतोद्योतन अर्थात् गृहस्थदशामें रहने वाले श्रावकके धर्मका प्रकाश कैसे होवे उसका इसमें वर्णन है । गृहस्थदशामें भी धर्म हो सकता है । सम्यग्दर्शनसहित शुद्धि किस प्रकार बढ़ती है और राग किस प्रकार टलता है, और श्रावक भी धर्मकी आराधना करके परमात्मदशाके सन्मुख किस प्रकार जाने वह बताकर इस अधिकारमें श्रावकके धर्मका उद्योत किया गया है। समन्तभद्रस्वामीने भी रत्नकरंडश्रावकाचार में श्रावकके धर्मोका वर्णन किया है, वहाँ धर्मके ईश्वर तीर्थंकर भगवन्तोंने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रको धर्म कहा है- ( सद्दष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मे धर्मेश्वराविदुः ) | उसमें सबसे पहले ही सम्यग्दर्शन धर्मका वर्णन किया गया है, और, उसका कारण सर्वज्ञकी श्रद्धा बताई गई हैं। यहाँ भी पद्मनन्दी मुनिराज श्रावकके धर्मोका वर्णन करते समय सबसे पहले सर्वशदेवकी पहिचान कराते हैं। जिसे सर्वशकी श्रद्धा नहीं, जिसे सम्यग्दर्शन नहीं, उसे तो मुनिका अथवा श्रावकका कोई धर्म नहीं होता । धर्मके जितने प्रकार हैं उनका मूल तो सम्यग्दर्शन है । अतः जिज्ञासुको सर्वज्ञकी पहिचान पूर्वक सम्यग्दर्शनका उद्यम तो सबसे पहले होना चाहिये। उस भूमिकामें भी रागकी मन्दता, इत्यादिके प्रकार किस प्रकार होते हैं, वे भी इसमें बताये गये हैं। निश्चय-व्यवहारकी संधि सहित सरस बात की गई है। सबसे पहले सर्वशकी और सर्वज्ञके कहे हुए धर्मकी पहिचान करनेके लिये कहा गया है ।
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