________________
[भावकधर्म-प्रकाश प्रमः-सच्चे देव-गुरुके प्रति प्रेम करना भी तो राग ही है ना?
उत्तरः-यह सत्य है, परन्तु सच्चे देव-गुरुको पहिचान सहित उनके तरफका राग सबेरेकी लालिमा जैसा है. उसके बाद थोड़े समयमें ही वीतरागतासे जगमगाता हुआ सूर्य उदय होगा। और कुदेव आदिका राग तो सन्ध्याकी लालिमा जैसा है, उसके पश्चात् अन्धकार है अर्थात् संसारभ्रमण है।
जहाँ धर्मके प्रसंगमें आपत्ति पड़े वहाँ तन-मन-धन अर्पण करनेमें धर्मी चूकता नहीं; उसे कहना नहीं पड़ता कि भाई! तुम ऐसा करो ना! परन्तु संघ पर, धर्म पर अथवा साधर्मी पर जहाँ मापत्तिका प्रसंग आवे और आवश्यकता पड़े वहाँ धर्मात्मा अपनी सारी शक्तिके साथ तैयार ही रहता है। जिसप्रकार रण-संग्राममें राजपूतका शौर्य छिपता नहीं उसी प्रकार धर्म-प्रसंगमें धर्मात्माका उत्साह छिपा नहीं रहता। धर्मात्माका धर्मप्रेम ऐसा है कि धर्मप्रसंगमें उसका उत्साह छिपा नहीं र सकता; धर्मकी रक्षा खातिर अथवा प्रभावना खातिर सर्वस्व स्वाहा करनेका प्रसंग मावे तो भी पीछे मुड़कर नहीं देखे। ऐसे धर्मोत्साहपूर्वक दानादिका भाव भावकको भव-समुद्रसे पार होने हेतु जहाज समान है। अतः गृहस्थोंको प्रतिदिन दान देना चाहिये।
-इस प्रकार दानका उपदेश दिया गया. अब जिनेन्द्रभगवानके दर्शनका विशेष उपदेश दिया जाता है।