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साधनसे अथवा रागके अवलंबनसे कोई सर्वक्षता नहीं प्रगटती। मोक्षमार्ग प्रकाशकके मंगलाचरणमें भी अरिहन्तदेवको नमस्कार करते समय पं. श्री टोडरमलजीने कहा है कि-"जो गृहस्थपना छोड़कर, मुनिधर्म अंगीकार कर, निज स्वभाव साधनले चार घाति कर्मोंका क्षय कर अनंतचतुष्टयरूप बिराजमान हुए हैं...ऐसे श्री अरिहन्तदेवको हमारा नमस्कार हो"। मुनिधर्म कैसा ? शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म, उसको अंगीकार करके, भगवानने निज स्वभाव साधनसे कर्मोंका क्षय किया; कोई बाहरके सामनले अथवा रागके साधनसे नहीं, परन्तु उन्होंने निश्चयरत्नत्रयरूप निजस्वभावकारी हो कमीका क्षय किया। इससे विपरीत साधन माने तो उसने भगवानकारी जाना नहीं, भगवानको पहिचाना नहीं। भगवानको पहिचानकर नमस्कार करें सा नमस्कार कहलवि।
यहाँ प्रथम ही कहा गया है कि बाह्य-अभ्यन्तर संगको छोड़कर शुक्ला से प्रभुने केवलबान पाया; अर्थात् कोई जीव घरमें रह करके बाहरमें पनाविक रख करके केवलज्ञान पा जावे ऐसा बनता नहीं। अंतरंगके संगमें मिथ्यात्वादि मोही छोड़े बिना मुनिदशा या केवलज्ञान होता नहीं।
मुनिके महावतादिका राग केवलज्ञानका साधन नहीं है, परन्तु उनको शुद्धोपयोगरूप निजस्वभाव ही केवलज्ञानका साधन है, उसे ही मुनिधर्म कहा गया है। यहाँ उत्कृष्ट पात बतानेका प्रयोजन होमेसे शुक्लध्यानकी बात ली गई है। शुक्लध्यान शुद्धोपयोगी मुनिको ही होता है। केवलज्ञानका साधनरूप यह मुनिधर्म मूल लम्यग्दर्शन है, और यह सम्यग्दर्शन सर्पक्षदेवकी तथा उनके वचनोंकी पहिचानपूर्वक होता है। इसलिये यहाँ श्रावकके धर्मके वर्णनमें सबसे पहिले ही सर्पक्षदेवकी पहिवान की ति ली गई है।
भालाका मान करके, मुनिवशर प्रगट करके, शुद्धोपयोषकी उम श्रेणी is करके जो 'सपेश हुए उन सर्षा परमात्माके वचन ही सत्यधर्ममा निरूपण करणे पाले हैं। ऐसे सर्वज्ञको पहिचाननेसे आत्माके ज्ञानस्वभावकी प्रतीति होती है और तब ही धर्मकी शुरुआत होती है। जो सर्वतकी प्रतीति नहीं करता उसे आत्माकी ही प्रतीति नहीं, धर्मकी ही प्रतीति नहीं; उसे तो शास्त्रकार " महापापी अथवा समव्य" कहते हैं। उसमें धर्म समझनेकी योग्यता नहीं, इसलिये उसे अभव्य कहा या है। जिसे सर्वक्षके स्वरूपमें संदेह है, मर्पक्षकी वाणीमें जिसे संदेह