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[ भाषातो अकसी आत्माकी अरूपी पर्याय है, इस स्वरूप साधन हाल ही भगवान केवलशान पाया है। ऐसे साधनको पहिचाने तो भगवानकी सची पहिचान होकर इस सर्वज्ञताको साधते साधते वन-निवासी सन्त पमनन्दी मुनिराजने यह शॉल रखा है। वे भी आत्माकी शक्तिमें जो पूर्णानन्द भरा है उसकी प्रतीति करी उसमें लीनता द्वारा' बोलते थे, सिद्ध भगवानके साथ अन्तरमें अनुभव शारापास करते थे और सिद्धप्रभु जैसा अतीन्द्रिय आनन्दका बहुत, अनुभव करते थे । भव्य जीवों पर करुणा करके यह शास्त्र रचा गया है। गृहस्थका धर्मबार कहते है कि मेरे जीव, सबसे प्रथम तू सर्वशदेवको पहिचान । सर्वदेवको पहिचानते ही अपनी सभी जाति पहिचानमें आ जावेगी। __ + महाविदेई क्षेत्रमें वर्तमानमें सर्वक्ष परमात्मा सीमंधरादि भयवन्त विराज रहे हैं, वहाँ लाखों सर्वक्ष भगवन्त हैं, ऐसे अनन्त हो गये हैं और प्रत्येक जीवमें ऐसी अकि है। अहो, आत्माकी पूर्णदशाको प्राप्त सर्वज्ञ परमात्मां इस लोकमें विराज रहे हैं ऐसी बात कानमें पड़ते ही जिसे आत्मामें ऐसा उल्लास आया कि वाह ! पाल्माका ऐसा वैभव ! आत्माकी ऐसी अचिंत्य शक्ति ! ज्ञानस्वभावमें सर्वश होने। की और पूर्ण आनन्दकी शक्ति है; मेरी आत्मामें भी ऐसी ही शक्ति है। इस प्रकार स्वभावकी महिमा जिसे जागृत हुई उसे शरीरकी, रागकी या अल्पशताकी महिमा नष्ट हो जाती है और उसकी परिणति ज्ञानस्वभावकी र मुक जाती है। उसका परिणमन संसारभावाने पीछे हटकर, सिद्धपदकी ओर लग जाता है। जिसकी की पता होती है इसे ही सर्वतकी सभी श्रद्धा हुई है, और सर्वसदेखने मकानों ही उसकी मुक्ति देखी है। ...
- सर्वतकी महिमाकी लो बात ही क्या है ! इस, सो परिकामों की और अपूर्व भाव होते हैं और उसमें कितना पुरुषार्थ है उनकी लोगों को खाति सर्वपदेवको पहिचानते ही मुमुक्षुको उनके प्रति अपार भक्ति कासित होती जहाँ पूर्ण ज्ञान-आनन्दको प्राप्त ऐसे सर्व परमात्माके प्रति पहिचानका प्र ति उल्लसित हुई वहाँ अब अन्य किसीकी (पुण्यकी या संयोगकी) महिमा रहती ही नहीं, उसका आदर नहीं रहता, और संसारमें भटकनेका भी सन्देह नहीं रहता। मरे सहा सामस्वभावका आदर किया और जिस मानमें सकी स्थापना की उस कारमें अब भव कैसा? भागमें भव नहीं, भवका संदेह नहीं। अरे जी का से लाको पहिचालकर उबके मस्त गा। इस प्रीजलाका परिप भी कित