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स्वतंत्रताकी घोषणा ]
देखो, यह भगवान आत्माको अपनी बात है। समझमें नहीं आयेगी, ऐसा महीं मानना; अंतर्लक्ष करे तो समझमें आये-ऐसी सरल है। देखो, लक्षमें लो कि अंदर कोई वस्तु है या नहीं ? और यह जो जाननेके या रागादिके भाव होते हैं इन भावोंका कर्ता कौन है? आत्मा स्वयं उनका कर्ता है। इसप्रकार आत्माको लक्षमें लेने के लिये दूसरी पढ़ाई की कहाँ आवश्यकता है ? दुनियाको बेगार करके दुःखी होता है उसके बदले वस्तुस्वभावको समझे तो कल्याण हो जाये । अरे जीव ! पेसे सरस न्यायों द्वारा सन्तोंने वस्तुस्वरूप समझाया है, उसे तू समझ । वस्तुस्वरूपके दो बोल हुए। अब तीसरा बोलः
(३) कर्त्ताके बिना कर्म नहीं होता कर्ता अर्थात् परिणमित होनेवाली वस्तु और कर्म अर्थात् उसको अवस्थारूप कार्य कर्ताके बिना कर्म नहीं होता; अर्थात् वस्तुके बिना पर्याय नहीं होती; सर्वथा शून्यमें से कोई कार्य उत्पन्न हो जाये ऐसा नहीं होता ।
देखो, यह वस्तुविज्ञानके महा सिद्धान्त ! इस २११ वें कलशमें चार बोलों द्वारा चारों पक्षोंसे स्वतंत्रता सिद्धकी है। विदेशोंमें अशानकी पढ़ाईके पीछे हैरान होते हैं, उसकी अपेक्षा सर्वशदेव कथित इस परमसत्य वीतरागी विज्ञानको समझे तो अपूर्व कल्याण हो।
(१) परिणाम सो कर्मः यह एक बात ।
(२) वह परिणाम किसका ?-कि परिणामी वस्तुका परिणाम है, दूसरेका नहीं। यह दुसरा बोल; इसका बहुत विस्तार किया है।
अब इस तीसरे बोलमें कहते हैं कि-परिणामीके बिना परिणाम नहीं होता। परिणामी वस्तुसे भिन्न अन्यत्र कहीं परिणाम हो ऐसा नहीं होता। परिणामी वस्तुमें ही उसके परिणाम होते हैं, इसलिये परिणामी वस्तु वह कर्ता है, उसके बिना कार्य नहीं होता। 'देखो, इसमें निमित्तके बिना कार्य नहीं होता-ऐसा नहीं कहा। निमित्त निमित्तमें रहता है, वह कहीं इस कार्यमें नहीं आ जाता, इसलिये निमित्तके बिना कार्य है परन्तु परिणामी बिना कार्य नहीं होता। निमित्त भले हो, परन्तु उसका अस्तित्व तो निमिचमें है, इसमें उसका अस्तित्व नहीं है। परिणामी वस्तुकी सत्तामें ही उसका कार्य होता है। मात्माके बिना सम्यक्त्वादि परिणाम नहीं होते। अपने समस्त परिणामोंका कर्ता आत्मा है, उसके बिना कर्म नहीं होता। "कर्म कर्तृशून्यं न भवति"-प्रत्येक पदार्थको अवस्था