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श्रावकके व्रतोंका वर्णन
44.
28.
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KHEREKERSE:
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सम्यग्दृष्टि-पंचमगुणस्थानवी श्रावकका राग कितना घट गया है और उसका विवेक कितना है ! एकभवावतारी इन्द्र और सर्वार्थसिदिके
देवोंसे भी ऊँची जिसकी पदवी, उसके विवेककी और उसके मन्दरायकी * क्या बात ! वह अन्दर शुद्धात्माको दृष्टि में लेकर साधता है और उसके
पर्यायमें राग बहुत घट गया है। मुनिकी अपेक्षा थोड़ी हो कम जिसकी दशा है।--ऐसी यह श्रावकदशा अलौकिक है !
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बह देशवतोद्योतन अर्थात् श्रावकके व्रतोंका प्रकाशन चल रहा है। सबसे पहले सर्वसष द्वारा कहे गये धर्मकी पहचान करनेको कहा गया है, पश्चात् समावि. अकेला ही मोक्षमार्गमें शोभाको प्राप्त होता है, ऐसा कहकर सम्यक्त्वकी प्रेरणा की है। तीसरी गाथामें सम्यग्दर्शनको मोक्षवृक्षका बीज कहकर उसकी दुर्लभता बताई तथा यत्नपूर्वक सम्यक्त्व प्राप्त करके उसकी रक्षा करनेको कहा गया। सम्यक्त्व प्राप्त करने के पश्चात् मुनिधर्मका अथवा श्रावकधर्मका पालन करनेका उपदेश दिया, उसको भावकके हमेशाके छह कर्तव्योंको भी बतलाया। अब श्रावकके व्रतोंका वर्णन करते हैं
घण्मूलनतमष्टधा तदनु च स्यात्वषाणुव्रत । शीलाख्यं च गुणवतं त्रयमतः शिक्षाश्चतस्रः पराः । रात्रौ भोजनवर्जनं शुचिपटात् पेयं पयः शक्तितो। मौनादिवतमप्यनुष्ठितमिदं पुण्याय भव्यात्मनाम् ॥ ५ ॥