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श्रावकधर्म-प्रकाश ]
इसप्रकारके भक्ति-पूजा-आहारदान आदि शुभभाव श्रावकको होते है, ऐसी ही उसकी भूमिका है। दृष्टिमें तो वर्तमानमें ही उसने रागको हेय किया है इसलिये दृष्टिके बलसे अल्पकालमें ही चारित्र प्रगट कर, रागको मर्षया दूर कर वह मुक्ति प्राप्त करेगा।
सामनेवाला जीव धर्मकी आराधना कर रहा हो उसे देखकर धर्मीको उसके प्रति प्रमोद, बहुमान और भक्तिका भाव उल्लमित होता है, क्योंकि स्वयंको उस आराधनाका तीव्र प्रेम है। इसलिये उसके प्रति भक्तिसे ( -मैं उस पर उपकार करता हूँ ऐसी बुद्धिसे नहीं परन्तु आदरपोक) शास्त्रदान, आहारवान आदिके भाय आते हैं। इस बहाने वह स्वयं अपने रागको घटाता है और आराधनाकी भावनाको पुष्ट करता है। देखो, यह तो वीतरागी सन्तोंने यस्तुस्वरूप प्रगट किया है ! वे अन्यन्त निस्पृह थे, उन्हें कोई परिग्रह नहीं था, उन्हें जगतसे कुछ लेना नहीं था। धर्मी जीव भी निस्पृह होता है, उसे भी किसीसे लेनेकी इच्छा नहीं। लेनेकी वृत्ति तो पाप है। धर्मी जीव तो दानादि द्वारा राग घटाना चाहता है। किसी धर्मीको विशेष पुण्यसे बहुत वैभव भी हो, उससे उसे अधिक गग है-ऐसा नहीं। रागका माप संयोगसे नहीं। यहाँ तो धर्मकी निचली भूमिकामें (श्रावकदशामें ) धर्म कितना हो, राग कैसा हो और उसका फल क्या हो वह वताया है। वहां जिननी वीतरागता हुई है उतना धर्म है और उसका फल तो आत्मशांतिका अनुभव है। स्वर्गादि वैभव मिले वह कोई वीतरागभावरूप धर्मका फल नहीं, वह तो गगका फल है। कोई जीव यहाँ ब्रह्मचर्य पाले और स्वर्गमें उसे अनेक देवियाँ मिलें, तो क्या ब्रह्मचर्यक फलमें देवियाँ मिली ? नहीं, ब्रह्मचर्यमें जितना गग दूर हुआ और वीतरागभाव हुमा उसका फल तो आत्मामें शान्ति है, परन्तु अभी वह पूर्ण वीतराग नहीं हुआ अर्थात् अनेक प्रकारके शुभ और अशुभ राग बाकी रह गये हैं। अभी धर्मीको जो शुभराग बाकी रह गया है उसके फलमें वह कहाँ जायेगा? क्या नरका दे गतिमें जायेगा ? नहीं; वह तो देवलोकमें ही जावेगा। अर्थात् देवलोककी प्राप्ति रानका फल है, धर्मका नहीं। यहाँ पुण्यका फल बताकर कोई उसकी लालच नहीं कराते, परन्तु राग घटानेका उपदेश देते हैं। जिस प्रकार स्त्री, शरीर आदिके लिये मशुभमावसे शक्ति अनुसार उत्साहपूर्वक खर्च करता है, वहाँ अन्यको यह कहना नहीं पड़ता कि तू इतना सर्व कर । तो जिसे धर्मका प्रेम है वह जीव स्वप्रेरणाले, उत्साहसे देव-गुरु-धर्मकी भक्ति, पात्रदान आदिमें बारम्बार अपनी लक्ष्मीका उपयोग करता है, -समें वह किसीके कहने की राह नहीं देखता। राग तो अपने लिये घटाना है ना!