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[ भावकधर्म-प्रकाश इसप्रकार देवपूजा, गुरुसेवा, और शास्त्रस्वाध्याय ये श्रावकके हमेशाके कर्तव्य हैं। जिस घरमें देव-गुरु-शास्त्रकी उपासना होती नहीं वह तो घर नहीं परन्तु जेलखाना है। जिस प्रकार भक्तिवान पुत्रको अपनी माताके प्रति कैसा आदरभाव और भक्ति आती है कि अहो, मेरी माता! तेरे उपकार अपार हैं ! तेरे लिये क्या करें!! उसी प्रकार धर्मात्मा श्रावकको तथा जिज्ञासु जीवको भगवानके प्रति, गुरुके प्रति और जिनवाणी माताके प्रति दृदयसे प्रशस्त भक्तिका उद्रेक आता है; अहो मेरे स्वामी ! आपके लिये मैं क्या क्या करूँ ? किस प्रकार आपकी सेवा करूँ ! ऐसा भाव भक्तको आये बिना नहीं रहता, तो भी उसकी जितनी सीमा है उतनी वह जानता है । केवल वह उस रागमें धर्म मानकर रुक नहीं जाता। धर्म तो अन्तरके भूतार्थस्वभावके अवलम्बनसे है-उसने स्वभावको प्रतीतिमें लिया है। ऐसे सम्यग्दर्शन सहित मुनिधर्मका पालन न कर सके तो भावकधर्मका पालन करे उसका यह वर्णन है।
श्रावकधर्ममें छह कर्तव्योंको मुख्य बताया है। एक जिनपूजा, दुसरी गुरुपूजा और तीसरी शास्त्रस्वाध्याय-इन तीनकी चर्चा की। उसके बाद अपनी भूमिकाके योग्य संयम, तप और दान भी श्रावक हमेशा करे । विषयों में सुखबुद्धि तो पहले ही छूट गई है, तत्पश्चात् विषय-कषायोंमें से परिणति मोड़कर अन्तरमें एकाग्रताका प्रतिदिन अभ्यास करे। मुनिराजको तथा साधर्मी धर्मात्माको आहारदान, शानदान इत्यादि करनेकी भावना भी प्रतिदिन करे । भरत चक्रवर्ती जैसे भी श्रावक अवस्थामें भोजनके समय प्रतिदिन मुनिवरोंको याद करते हैं कि कोई मुनिराज पधारें तो उन्हें आहारवान देनेके पश्चात् में भोजन करें। मुनिराजके पधारने पर अत्यन्त भक्तिपूर्वक आहारदान करते हैं । दान बिना गृहस्थ-अवस्थाको निष्फल कहा है। जो पुरुष मुनि इत्यादिको भक्तिपूर्वक चतुर्विध दान (आहार-शास्त्र-औषध और अभय ये चार प्रकारके वाल) नहीं देता उसका घर तो वास्तवमें घर नहीं परन्तु उसको बांधनेके लिये बन्धपाश है। ऐसा दान सम्बन्धी बहुत उपदेश पमनन्दी स्वामीने दिया है। (देस्त्रिये, उपासक-संस्कार अधिकार, गाथा ३१ से ३६) श्रावककी भूमिकामें चैतन्यकी दृष्टि सहित इसप्रकार छह कार्योके भाव सहज होते हैं।
"भाकर्म-प्रकाश"का मतलब है कि गृहस्थाश्रममें सम्यक्तपूर्वक धर्मका प्रकाश होकर वृद्धि होगा- उसका यह वर्णन है। प्रथम तो सम्यग्दर्शनकी दुर्लभता बतलाई । ऐसे तो सम्बपर्शन सदाकाल दुर्लभ है, उसमें भी आजकल तो उसकी सभी