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________________ १२) [ भावकधर्म-प्रकाश या पत्रके त्यागको मुनिपना मान ले तो वह श्रद्धा भी सच्ची नहीं रहती, अर्थात् उसे तो श्रावकका धर्म भी नहीं रहता। चाहे कदाचित् मुनिपना न ले सके परन्तु अन्तरंगमें उस स्वरूपकी प्रतीति बराबर प्रज्वलित रले तो सम्यग्दर्शन टिका रहेगा, इसलिये तुमसे विशेष न हो सके तो जितना हो सके उतना ही करना। श्रद्धा सखी होगी तो उसके बलसे मोक्षमार्ग टिका रहेगा। श्रद्धामें ही गड़बड़ी करेगा तो मोक्षमार्गसे भ्रष्ट हो जावेगा। सम्यग्दर्शनके द्वारा जिन्होंने शुद्धात्माको प्रतीतिमें लिया, उसमें उन लीनतासे शुद्धोपयोग प्रगट हो और प्रचुर आनन्दका संवेदन अन्तरमें हो रहा हो; बाह्यमें वमादि परिग्रह छूट गया हो-ऐसी मुनिदशा है। अहो, इसमें तो बहुत धीतरागता है, यह तो परमेष्ठी पद है। कुन्दकुन्द स्वामी स्वयं ऐसी मुनिदशामें थे, उन्होंने प्रवचनसारके मंगलाचरणमें पंचपरमेष्ठी भगवन्तोंको] वन्दन किया है, उन्होंने उसमें कहा है कि "जिन्होंने परम शुद्ध उपयोग भूमिकाको प्राप्त किया है ऐसे साधुओंको प्रणाम करता हूँ।" शुद्धोपयोगका नाम चारित्रदशा है, मोह और क्षोभ बिना जो मात्मपरिणाम यह चारित्र धर्म है। वही मुनिपना है। मुनिमार्ग क्या है उसकी जगतको खबर नहीं । कुन्दकुन्दाचार्य जैसे जिस पदको नमस्कार करें-वह मुनिपद कैसा ? यहाँ “णमो लोए सन्य साहूणम्" ऐसा कहकर पंचपरमेष्ठी पदमें इन्हें नमस्कार किया जाता है-स साधुपदकी महिमाकी क्या बात ! ! यह तो मोक्षका साक्षात् कारण है। यहाँ कहते है कि हे जीव ! मोक्षका साक्षात् कारण-शुरुचारित्रको तू भंगीकार कर, सम्यग्दर्शन पश्चात् ऐसी चारित्रदशा प्रगट कर । चारित्रदशा बिना मोक्ष नहीं। क्षायिक सम्यक्त्व और तीन बान सहित ऐसे तीर्थकर भी जब शुद्धोपयोगरूप चारित्रदशा प्रगट करते हैं तभी मुनिपना और केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। इसलिये सम्यग्दर्शन प्राप्त करके ऐसी बारित्रदशा प्रगट करना वह उत्तम मार्ग है। परन्तु लोकनिषेधसे और स्वयं के परिणाममें उस प्रकारकी शिथिलतासे जो बारित्रदशा न ली जा सके तो भायकके योग्य प्रतादि करे । विगम्बर मुनिदशा पालने में तो बहुतं वीतरागता है, परिणामोंकी शक्ति न देखे और ज्यों-त्यों मुनिपना ले ले और पीछे पालन न कर सके तो उलटे मुनिमार्गकी निन्दा होती है। इसलिये अपने शुद्धपरिणामकी शक्ति देखकर मुनिपना लेना; शक्तिकी मन्नता हो तो मुनिपनेकी भावनापूर्वक श्रावकधर्मका माचरण करना। परन्तु उसके मूलमें सम्यग्दर्शन तो पहले होता ही है, उसमें कमजोरी नहीं चलती। सम्यकमें थोड़ा या अधिक ऐसा मेद पाता।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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