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प्रावधर्म-प्रकाश प्रशंसनीय नहीं। ऐसा समझकर हे जीव ! तू सम्यग्दर्शनकी आराधना कर, यह तात्पर्य है।
शरीर क्या आत्माका है? जो अपना नहीं यह चाहे जैसा हो उसके साथ मात्माका क्या सम्बन्ध है ?--सलिये धर्मीका महत्त्व संयोगसे नहीं, धर्मीका महत्व निज चिदानन्दस्वभावकी अनुभूतिसे ही है।
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हजारों मेड़ोंके समूहकी अपेक्षा जंगलमें अकेला सिंह भी शोभता है, उसी. प्रकार जगतके लाखों जीवोंमें सम्यग्दृष्टि अकेला भी (गृहस्थपनेमें हो तो भी) शोभता है । मुनि सम्यग्दर्शन बिना शोभता नहीं और सम्यग्दृष्टि मुनिपना बिना भी शोभता है, वह मोक्षका साधक है, वह जिनेश्वरदेवका पुत्र है; लाख प्रतिकूलताके बीचमें भी वह जिनशासनमें शोभता है। मिथ्यादृष्टि करोड़ों और सम्यकदृष्टि प्रक-दो ही हों तो भी सम्यग्दृष्टि ही शोभते हैं। बहुत चींटियोंका समूह एकत्रित हो जाय उससे कोई उनकी कीमत बढ़ नहीं जाती, वैसे ही मिथ्यादृष्टि जीव बहुत इकडे हो जावें उससे वे प्रशंसा प्राप्त नहीं करते । सम्यग्दर्शन बिना पुण्यके बहुत संयोग प्राप्त हो तो भी आत्मा शोभता नहीं; और नरकमें जहाँ हजारों-लाखों या असंख्यात वर्षों पर्यंत अनाजका कण या पानीकी बंद नहीं मिलती वहाँ भी आनन्दकन्द आत्माका भान कर सम्यग्दर्शनसे आन्मा शोभित हो उठता है ।* प्रतिकूलता कोई दोष नहीं और अनुकूलता कोई गुण नहीं है । गुण-दोषोंका सम्बन्ध बाहरके * जिनेन्द्र भगवानके दर्शन करते हुए हम नीचेका श्लोक बोलते हैं, उसमें भी यह .. भावना गॅथी हुई है
जिनधर्मधिनिर्मुक्तो मा भवत् चक्रवर्त्यपि । स्थात् चेटोपि दरिद्रोपि जिनधर्मानुवासितः ॥