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[ भावकधर्म-प्रकाश
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मनुष्यपना प्राप्त करके या तो मुनि हो, या दान दे ....................
......... . ..... ®®®®®®®®®®®®फ ७000000000000 - जैनधर्मका चरणानुयोग भी अलौकिक है । द्रव्यानुयोगके अध्यात्म
का और चरणानुयोगके परिणामका मेल होता है । दृष्टि सुधरे और • परिणाम चाहे जैसे हुआ करें ऐसा नहीं बनता । अध्यात्मकी दृष्टि हो ७
वहाँ देव-गुरुकी भक्ति, दान, साधर्मीके प्रति वात्सल्य आदि भाव - सहज आते ही हैं। श्रावकके अन्तरमें मुनिदशाकी प्रीति है इसलिये ॐ हमेशा त्यागकी ओर लक्ष रहा करता है, और मुनिराजको देखते ७ - ही भक्तिसे उसके रोम-रोम उल्लसित हो जाते हैं। भाई ! ऐसा * मनुष्य-अवतार मिला है तो मोक्षमार्ग साधकर इसे सफल कर । & 00000000
0 0000000000000 आवकधर्मका वर्णन सर्वक्षकी पहिचानसे शुरू किया था, उसमें यह दानका प्रकरण चल रहा है। उसमें कहते हैं कि ऐसा दुर्लभ मनुष्यपना प्राप्त करके जो मोक्ष का उद्यम नहीं करता अर्थात् मुनिपना भी नहीं लेता और दानादि भावकधर्मका भी पालन नहीं करता, वह तो मोहबंधनमें बँधा हुवा है
ये मोक्षप्रति नोधताः मुनुभवे लब्धेपि दुर्बुद्धयः ते तिष्ठति गृहे न दानमिह चेत् तन्मोहपाशो दृढः । मत्वेदं गृहिणा यदि विविध दानं सदा दीयतां
तत्संसारसरित्पति प्रतरणे पोतायते निश्चितं ॥ १७ ॥ ऐसा उत्तम मनुष्यभव प्राप्त करके भी जो कुबुद्धि जीव मोक्षका उद्यम नहीं करता और गृहस्थपनेमें रहकर दान भी नहीं देता उसका गृहस्थपना दृढ़ मोहपाशके समान है। ऐसा समझकर गृहस्थके लिये अपनी शक्ति अनुसार विविध प्रकार दान देना सदा कर्तव्य है, क्योंकि गृहस्थको तो दान संसारसमुद्रसे तिरनेके लिये निश्चित् जहाजके समान है।