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[भावकधर्मका पालन करता है, और दान, जिनपूजा आदि कार्यों द्वारा वह अपने गृहस्थजोवनको सफल करता है।
वर्तमानमें तो मुनियोंकी दुर्लभता है, और मुनि हों तो भी वे कोई जिनमन्दिर संघवाने या पुस्तक छपवाने जैसी प्रवृत्ति नहीं करते, बायकी कोई प्रवृत्तिका भार मुनि अपने सिर पर नहीं रखते, ऐसा कार्य तो श्रावक ही करता है। उत्तम श्रावक प्रगाढ़ भक्ति सहित जिनमन्दिर बनावे, प्रतिष्ठा करावे, उसकी शोभा बढ़ावे, कहाँ क्या चाहिये; और किस प्रकार धर्मकी शोभा बढ़ेगी-ऐसी प्रगाढ़ भक्ति करता है।
चलो जिनमन्दिर दर्शन करने, चलो प्रभुकी भक्ति करने, चलो धर्मका महोत्सव करने,
चलो कोई तीर्थकी यात्रा करने. । -स प्रकार प्रावक-श्राविका प्रगाढ़ भक्तिसे जैनधर्मको शोभित करे। अहा, शान्त दशाको प्राप्त धर्मी जीव कैसा होता है और वीतरागी देव-गुरुकी भक्तिका उसे उल्लास कैसा होता है उसकी भी जीवोंको खबर नहीं। पूर्ष समयमें तो वृद्धयुवा, बहिमें और बालक सभी धर्मप्रेमी थे और धर्म द्वारा अपनी शोभा मानते थे। इसके बदले वर्तमानमें तो सिनेमाका शौक बढ़ा है और स्वच्छन्द फूट पड़ा है। ऐसे विषमका में भी मो जीव भक्तिवाले हैं, धर्मके प्रेमी हैं और जिनमन्दिर आदि बनवाता १-वेसे भाषक धन्य हैं!
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