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अष्टप्राभृत मोक्षप्राभृतमें कुन्दकुन्दस्वामीने श्रावकके प्रथम कर्तव्यका ! सुन्दर उपदेश दिया है, जो सम्यक्त्वकी भक्ति और प्रेग्णा जागृत करता है। उसमें वे कहते हैं कि ..
हे श्रावक ! प्रथम तो सुनिर्मल और मेरुबत् निष्कंप, अचल, (चल, मलिन तथा अगाढ-इन तीन दोषोंसे रहित ) अत्यन्त निश्चल ऐसे सम्यक्त्वको ग्रहण करके, उसे (सम्यक्त्वके विषयभूत एकरूप आत्माको ) ध्यानमें ध्याना; किसलिये ध्याना! - कि दुःखके क्षयहेतु ध्याना ।
भावार्थ:-श्रावकको प्रथम तो निरतिचार निश्चल सम्यक्त्वको ग्रहण करके उसका ध्यान करना चाहिये, कि जिस सम्यक्त्वकी भावनासे गृहस्थको गृहकार्य-सम्बन्धी आकुलता, क्षोभ, दुःख हो वह मिट जाये। कार्यके बनने- । बिगड़नेमें वस्तुस्वरूपका विचार आनेसे दुःख मिट जाता है। सम्यग्दृष्टिको, ऐसा विचार होता है कि सर्वज्ञने वस्तुका म्वरूप जैसा जाना है वैसा निरंतर परिणमित होता है; उसमें इष्ट -अनिष्ट मानकर, सुखी-दुःखी होना बह निष्फल है, ऐसे विचारसे दुःख मिटना है, वह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है। इसलिये सम्यक्त्वका ध्यान करनेको कहा है।