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________________ ५०८] [भावकधर्म-प्रकाश हमें तेरी स्तुतिका व्यसन पड़ गया है। जिस प्रकार व्यसनी मनुष्य अपने व्यसनकी वस्तुके बिना नहीं रह सकता, उसी प्रकार सर्वशके भक्तोंको स्तुतिका व्यसन है इसलिये भगवानकी स्तुति-गुणगान बिना वे नहीं रह सकते। धर्मात्माके हदयमें सर्वदेवके गुणगान चित्रित हो गये हैं। अहा, साक्षात् भगवानको देखना मिले यह तो धम्य घड़ी है! कुन्दकुन्दाचार्य जैसोंने विदेहमें जाकर सीमन्धरनाथको साक्षात् देखा। इनकी तो क्या बात! अभी तो यहाँ ऐसा काल नहीं। अरे तीर्थंकरोंका विरह, केवलियोंका विरह, महान संत-मुनियोंका भी विरह-ऐसे कालमें जिनप्रतिमाके दर्शनसे भी धर्मी जीव भगवानके स्वरूपको याद करता है। इसी प्रकार वीतराग जिनमुद्राको देखनेकी जिसे उमंग न हो वह जीव संसारकी तीव्र रुचिको लेकर संसार-सागरमें डूबने वाला है। वीतरागका भक्त तो वीतरागदेवका नाम सुनते ही और दर्शन करते ही प्रसन्न हो जाता है। जिस प्रकार सज्जन विनयवन्त पुत्र रोज सबेरे माता-पिताके पास जाकर विवेकसे चरणस्पर्श करता है, उसी प्रकार धर्मी जीव प्रभुके पास जाकर बालक जैसा होकर, विनयसे प्रतिदिन धर्मपिता जिनेन्द्रभगवानके दर्शन करता है, उनकी स्तुति-पूजा करता है। मुनिवरोंको भक्तिसे आहारदान करता है। पेसी वीतरागी देव-गुरुकी भक्तिके बिना जीव मिथ्यात्वकी नावमें बैठकर चार गतिके समुद्र में डूबता है और बहुमूल्य मनुष्य-जीवनको नष्ट कर डालता है। अतः धर्मके प्रेमी जीव देव-गुरुकी भक्तिके कार्यों में हमेशा अपने धनका और जीवनका सदुपयोग करें-ऐसा उपदेश है। -सप्रकार भावार्य जिनेन्द्रदेवके दर्शनका तथा दानका उपदेश देकर अब दाताकी प्रशंसा करते है।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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