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[ भावकधर्म-प्रकाश ...............[१५]....... : पात्रदानमें उपयोग हो वही सच्चा धन है in..............
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देव-गुरु-धर्मके प्रसंगमें बारम्बार दान करनेसे धर्मका संस्कार ताजा रहा करता है और धर्मको रुचिका बारम्बार घोलन होनेसे । आगे बढ़नेका कारण होता है....जो जीव पापकार्यमें तो उत्साहसे धन खच करता है और धर्मकार्योंमें कंजूसी करता है उसे धमका सच्चा प्रेम । नहीं, धर्मका प्रेमवाला गृहस्थ संसारको अपेक्षा विशेष उत्साहसे धर्मकार्यों में । वर्तता है।
___ गृहस्थका जो धन पात्रदानमें खर्च हो वही सफल है-ऐसा कहकर दानकी प्रेरणा देते हैं
पात्राणामुपयोगी यत्किल धनं तत्धीमतां मन्यते येनानन्तगुणं परत्र सुखदं व्यावर्तते तत्पुनः । यभोगाय गतं पुनर्धनयतः तन्नष्टमेव ध्रुवं
सर्वासामिति सम्पदां गृहवतां दानं प्रधानं फलम् ।। जो धन सत्पात्र-दानके उपयोगमें आता है उस धनको हो बुद्धिमान वास्तवमें धन समझते हैं, क्योंकि सत्पात्रमें खर्च किया हुमा धन परलोकमें अनन्तगुना होकरके सुख देवेगा। परन्तु जो पन भोगादि पापकार्यों में खर्च होता है वह तो सही रूपमें नष्ट हो जाता है। इस प्रकार पात्रदान गृहस्थको समस्त सम्पदाका उत्तमफल है ऐसा समझना ।
देखो, ऐसा समझे उसके पापपरिणाम कितने कम हो जावें ! और पुण्यपरिणाम कितने बढ़ जावें ! और फिर धर्म तो इनसे भी भिन्न तीसरी ही वस्तु है। भाई, पाप और पुण्यके बीचमें विवेक कर, कि संसारके भोगादिके लिये जो कर वह