Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 144
________________ १३२] (भावकधर्म-प्रकाश मुनि तो मोक्षके साक्षात् साधक है; और श्रावक परम्परासे मोक्षका साधक है। श्रावकको केवल व्यवहारसाधन है ऐसा नहीं, किन्तु उसे भी अंशरूप निश्चयसाधन होता है और वह निश्चयके बलसे ही (अर्थात् शुद्धिके बलसे ही) आगे बढ़कर राग तोड़कर केवलज्ञान और मोक्ष पाता है। श्रावकको अभी शुद्धता कम है और राग शेष है-इसलिये वह स्वर्गमें महान ऋद्धि सहित देव होता है। श्रावक मरकर कभी भी विदेहक्षेत्रमें जन्म नहीं लेता। मनुष्यगसिसे मरकर विदेहक्षेत्रमें उत्पन्न होनेवाला तो मिथ्यादृष्टि ही होता है पहले बंधी हुए आयुके कारण जो समकिती मनुष्य पुनः सीधा मनुष्य ही बने वह तो असंख्य वर्षकी आयु वाली भोगभूमिमें ही जन्म लेवे, विदेह आदिमें जन्म नहीं लेता. और पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक तो कभी मनुष्यपर्यायमेंसे मनुष्य होता ही नहीं, देवगतिमें ही जाता है, ऐसा नियम है। सम्यक्ष्टि मनुष्य कभी मनुष्य, तिर्यच अथवा नरककी आयु नहीं बांधता; मनुष्यगतिमें ये तीनों आयु मिथ्याष्टिको भूमिकामें ही बंधती हैं;-आयु बंधने पर चाहे सम्कदर्शन प्राप्त हो जाय-यह बात अलग है, परन्तु इन तीनमें से कोई आयु बाँधते समय तो वह मनुष्य मिथ्यादृष्टि ही होता है। सम्यक्दृष्टि देव होवे या नारकी हो वह मनुष्यकी आयु बाँध सके, परन्तु सम्यकदृष्टि मनुष्य यदि उसे भव होवे और आयु बघि, तो देवगतिकी ही आयु बाँधे, अन्य न बाँधे -ऐसा नियम है। गृहस्थपने में अधिकसे अधिक पांचवें गुणस्थान तक की भूमिका होती है, इससे ऊँची भूमिका नहीं होती, वह अधिकसे अधिक एकभवावतारी हो सके परन्तु गृहस्थावस्थामें मोक्ष नहीं पा सकता । बाह्य-मभ्यन्तर दिगम्बर मुनिदशा हुए बिना कोई जीव मोक्ष नहीं पा सकता। भाषक-धर्मात्मा आराधकभाषके साथ उत्तम पुण्यके कारण यहाँसे वैमानिक देवलोकमें जाता है, वहाँ अनेक प्रकार महानऋद्धि और वैभव होते हैं, परन्तु धर्मी उसमें मूच्छित (मोहित) नहीं होता, वह वहाँ भी आराधना चालू रखता है। उसने मात्माका सुख बखा है इसलिये बाह्यवैभवमें मूच्छित होता नहीं। स्वर्गमें जन्म होने पर वहाँ सबसे पहले इसे ऐसा भाव होता है किअहो! यह तो मैंने पूर्वभवमें धर्मका सेवन किया उसका प्रताप है, मेरी आराधना मधूरी रह गई, और राग शेष रहा इस कारण यहाँ अवतार हुआ; पहले जिनेन्द्रभगवानकी पूजन-भक्ति की थी उसका यह फल है। इसलिये चलो, सबसे पहले जिनेन्द्र भगवानका पूजन करना चाहिये। ऐसा कहकर स्वर्गमें जो शाश्वत जिनप्रतिमा हैं उनकी पूजा करता है। इस प्रकार यह स्वर्गमें भी भाराधकभाव चालू

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