Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 147
________________ भाषकधर्म-प्रकाश ] [ १३५ व्यवहारके अवलम्बनसे मोक्ष होना नहीं मानते, इसलिये तुम व्यवहारको ही नहीं मानते, परन्तु यह बात बराबर नहीं है। जगतमें तो स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप, जीवअजीव सब तत्त्व हैं, उनके आश्रयसे लाभ माने तो ही उन्हें स्वीकार किया कहा जावे ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है; इसीप्रकार व्यवहारको भी समझना । मुनिधर्म और श्रावकधर्म ऐसे दोनों प्रकारके धर्मों का भगवानने उपदेश दिया है। इन दोनों धर्मोंका मूल सम्यग्दर्शन है। वहाँ स्वोन्मुखताके बल द्वारा जितना राग दूर होकर शुद्धता प्रगट हुई उतना ही निश्चयधर्म है, और महावत-अणुक्त अथवा दान-पूजा आदि सम्बन्धी जितना शुभराग रहा उतना उस भूमिकाका भसद्भूत व्यवहारनयसे जानने योग्य व्यवहारधर्म है। धर्मी जीव स्वर्गमें जाता है वहाँ भी जिनेन्द्र-पूजन करता है, भगवानके समवसरणमें जाता है, नन्दीश्वर द्वीप जाता है, भगवानके कल्याणक प्रसंगोंको मनाने आता है, ऐसे अनेक प्रकारके शुभकार्य करता है। देवलोकमें धर्मीकी आयु इतनी होती है कि देवके एक भवमें तो असंख्य तीर्थंकरों के कल्याणक मनाये जाते हैं । इसलिये देवोंको 'अमर' कहा जाता है। देखो तो, जीवके परिणामकी शक्ति कितनी है ! शुद्ध परिणाम करे सो दो घड़ीमें केवलज्ञान प्राप्त करे; दो घड़ीके शुभपरिणाम हाग असंख्य वर्षका पुण्य बँधे; और अज्ञान द्वारा तीव्र पाप करे तो दो घडीमें असंख्य वर्ष तक नरकके दुःख को प्राप्त करे !-उदाहरणस्वरूप ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीकी आयु कितनी ? कि सात सौ (७००) वर्षः इन सात सौ वर्षोंकी संख्यात सेकंड होती हैं। इतने कालमें इसने नरककी तैतीस सागरोंकी अर्थात् असंख्यात अरब वर्षको आयुष बांधी; अर्थात् एक एक सेकंडके पापके फलमें असंख्य अरब वर्षके नरकका दुःम्व प्राप्त किया। पाप करते समय जीवको विचार नहीं रहता परन्तु इस नरकके दुःख की बात सुने तों घबराहट हो जाय । ये दुःख जो भोगता है-उसकी पीड़ाकी तो क्या बात,-परन्तु इसका वर्णन सुनते ही अज्ञानीको भय पैदा हो जाय ऐसा है । इसलिये ऐसा अवसर प्राप्त करके जीवको चेतना चाहिये । जो चेतकर आत्माकी आराधना करे तो उसका फल महान है, जिसप्रकार पापके एक सेकंडके फलमें असंख्य वर्षका नरकदुःख कहा, उसीप्रकार साधकदशाके एक एक समयकी आराधनाके फलमें अनन्तकालका अनन्तगुना मोक्षसुख है। किसी जीवको साधकदशाका कुल काल असंख्य समयका ही होता है, संख्यात समयका नही होता, अथवा अनन्त समयकामही होता; और मोक्षका काल तो सादि-अनन्त है अर्थात् एक-एक समयके साधकभावके फलमें अनन्तकालका मोक्षसुख आया ।-वाह, कैसा लाभका व्यापार ! भाई, तेरे आत्माके शुद्धपरिणामकी शक्ति कितनी है-वह तो देख ! ऐसे शुद्धपरिणामसे आत्मा जागृत हो तो क्षणमात्रमें कर्मोको तोड़फोड़ कर मोक्षको प्राप्त कर के ।

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