Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 165
________________ स्वतंत्रताको घोषणा [१५२ और उसमें स्थिरता हो, उसे धर्म कहा जाता है। सतसे विपरीत शान करे तो धर्म नहीं होता। स्वमें स्थिरता ही मूल धर्म है, परन्तु वस्तुस्वरूपके सच्चे पान बिना स्थिरता कहाँ करेगा? मात्मा और शरीरादि रजकण भिन्न-भिन्न तस्व है। शरीरकी अवस्था, हलनचलन-बोलना, वह उसके परिणामी पुद्गलोंका परिणाम है, उन पुद्गलोंके आश्रित यह परिणाम उत्पन्न हुए हैं, इच्छाके आश्रित नहीं, उसी प्रकार इच्छाके आश्रित शान भी नहीं । पुद्गलके परिणाम आत्माके आश्रित मानना, और आत्माके परिणाम पुद्गलाश्रित मानना, उसमें तो विपरीत मान्यतारूप मूढ़ता है। जगतमें भी जो वस्तु जैसी हो उससे विपरीत बतलानेवालेको लोग मूर्ख कहते हैं, तो फिर सर्वशकथित यह लोकोत्तर वस्तुस्वभाव जैसा है वैसा न मानकर विरुद्ध माने तो वह लोकोत्तर मूर्ख और अविवेकी है, विवेकी और विवक्षण कब कहा जाय ? कि वस्तुके जो परिणाम हुए उसे कार्य मानकर, उसे परिणामी-वस्तुके आश्रित समझे और दुसरेके आश्रित न माने, तब स्व-परका मेदक्षान होता है, और तभी विवेकी है ऐसा कहने में आता है। आत्माके परिणाम परके आश्रयसे नहीं होते। विकारी और अविकारी जो भी परिणाम जिस वस्तुके हैं वह उसी वस्तुके आश्रित है, अन्यके आश्रित नहीं। पदार्थके परिणाम वही उसका कार्य है-यह एक बात, दूसरी बात यह कि वह परिणाम उसी वस्तुके आश्रयसे होते हैं, अन्यके आश्रयसे नहीं होते। यह नियम जगतके समस्त पदार्थों में लागू होते हैं। देखो, भाई ! यह तो मेदज्ञानके लिये धस्तुस्वभावके नियम बतलाये गये हैं। धीरे-धीरे दृष्टांतसे, युक्तिसे वस्तुस्वरूप सिद्ध किया जाता है। किसीको ऐसे भाव उत्पन्न हुए कि सौ रुपये दानमें हूँ, उसके वह परिणाम आत्मवस्तुके आश्रित हुए हैं; वहाँ रुपये जाने की जो क्रिया होती है वह रुपयेके रजकणोंके आश्रित है, जीवकी इच्छाके आश्रित नहीं। अब उस समय उन रुपयोंको क्रियाका शान, अथवा इच्छाके भावका हान होता है वह हानपरिणाम आत्माभित हुआ है -इस प्रकार परिणामोंका विभाजन करके वस्तुस्वरूपका ज्ञान करना चाहिये। भाई, तेरा ज्ञान और तेरी इच्छा, यह दोनों परिणाम आत्मामें होते हुए भी वे एक-दूसरेके, आथित नहीं है, तो फिर परकै आश्रयकी तो बात ही कहाँ रही.

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