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[ स्वतंत्रताकी घोषणा बस, मोक्षमार्गके सभी परिणाम स्वद्रव्याश्रित है, अन्यके आश्रित नहीं है। उस समय अन्य (रागादि) परिणाम होते हैं उनके आश्रित भी यह परिणाम नहीं है। एक समयमें श्रद्धा-शान-चारित्र इत्यादि अनंत गुणोंके परिणाम वह धर्म, उसका माधार धर्मी अर्थात् परिणमित होनेवाली वस्तु है; उस समय अन्य जो अनेक परिणाम होते हैं उनके आधारसे श्रद्धा इत्यादिके परिणाम नहीं हैं। निमित्तादिके आधारसे तो नहीं हैं. परन्तु अपने दूसरे परिणामके आधारसे भी कोई परिणाम नहीं है। एक ही द्रव्यमें एकसाथ होने वाले परिणामोंमें भी एक परिणाम दूसरे परिणामके आश्रित नहीं; द्रव्यके ही आभित सभी परिणाम हैं, सभी परिणामोंरूपसे परिणमन करने वाला द्रव्य ही है-अर्थात् द्रव्यसन्मुख लक्ष जाते ही सम्यक् पर्यायें प्रगट होने लगती है।
वाह ! देखो, आचार्यदेवको शैली थोड़ेमें बहुत समा देने की है। चार बोलोंके इस महान सिद्धांतमें वस्तुस्वरूपके बहुतसे नियमोंका समावेश हो जाता है। यह त्रिकाल सत्यका सर्वक द्वारा निश्चित किया हुआ सिद्धांत है। अहो, यह परिणामीके परिणामकी स्वाधीनता, सर्वक्षदेव द्वारा कहा हुआ वस्तुस्वरूपका तत्त्व सन्तोंने इसका विस्तार करके आश्चर्यकारी कार्य किया है, पदार्थका पृथक्करण करके मेदशान कराया है। अंतरमें इसका मंथन करके देखे तो मालूम हो कि अनंत सर्वक्षों तथा संतोंने ऐसा ही वस्तुस्वरूप कहा है और ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है।
__ सर्वश भगवंत दिव्यध्वनि द्वारा ऐसा तत्त्व कहते आये हैं-ऐसा व्यवहारसे कहा जाता है; दिव्यध्वनि तो परमाणुओंके आश्रित है।
कोई कहे कि अरे, दिव्यध्वनि भी परमाणु-आश्रित है? हाँ, दिव्यध्वनि वह पुद्गलका परिणाम है, और पुद्गल परिणामका आधार तो पुद्गल द्रव्य ही होता है; जीव उसका आधार नहीं हो सकता। भगवानका आत्मा तो अपने केवलज्ञानादिका माधार है। भगवानका मात्मा तो केवलक्षान-दर्शन-सुख इत्यादि निज-परिणामरूप परिणमन करता है. परन्तु कहीं देह और वाणीरूप अवस्था धारण करके भगवानका आत्मा परिणक्ति नहीं होता, उसरूप तो पुद्गल ही परिणमित होता है। परिणाम परिणामीके होते हैं, अन्यके नहीं।
___ भगवानकी सर्वशताके आधारसे दिव्यध्वनिके परिणाम हुए-ऐसा वस्तुस्वरूप नहीं है। भाषापरिणाम अनंत पुद्गलाधित है, और सर्पक्षता आदि परिणाम जीवाश्रित हैं; इसप्रकार दोनोंको भिन्नता है। कोई किसीका कर्ता या आधार नहीं है।