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[ स्वतंबाकी घोषणा ही ऐसा है कि वह नित्व एकरूप रहे। इव्बम्पसे एकरूप रहे परन्तु पर्यावरूपसे एकरूप न रहे, पलटता ही रहे-ऐसा वस्तुका स्वरूप है।
इन चार वोलासे ऐसा समझाया कि वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कार्य की कर्ता है, यह निश्चित सिद्धान्त है।
इस पुस्तकका पृष्ठ पहले ऐसा था और फिर पलट गया; वहाँ हाथ लगनेसे पलटा हो ऐसा नहीं है, परन्तु उन पृष्ठोंके रजकणों में ही ऐसा स्वभाव है कि सदा एकरूप उनकी स्थिति न रहे, उनकी अवस्था बदलती रहती है। इसलिये वे स्वयं पहली अवस्था छोड़कर दूसरी अवस्थारूप हुए है, दूसरेके कारण नहीं । वस्तुमें भिन्न-भिन्न अवस्था होती ही रहती है। वहाँ संयोमके कारण वह भिन्न अवस्था हुई-ऐसा अज्ञानीका भ्रम है, क्योंकि वह संयोगको ही देखता है परन्तु वस्तुके स्वभावको नहीं देखता । वस्तु स्वयं परिणमनस्वभाषी है, इसलिये वह एक ही पर्यायरूप नहीं रहती;-ऐसे स्वभावको जाने तो किसी संयोगसे अपनेमें या अपनेसे परमें परिवर्तन होने की बुद्धि छट जाये और स्वद्रव्यकी मोर देखना रहे, इसलिये मोक्षमार्य प्रगट हो।
पानी पहले ठंडा था और चूल्हे पर मानेके बाद गर्म हुथा, वहाँ उन रजकणों का ही पेसा स्वभाव है कि उनकी सदा एक अवस्थारूप स्थित न रहे; इसलिये वे अपने स्वभावसे ही ठंडी अवस्थाको छोड़कर गर्म अवस्थारूप परिणामत हुए हैं। इसप्रकार स्वभाषको न देखकर भवानी संयोगको देखता है कि-अग्निके मानेसे पानी गर्म हुमा । यहाँ आचार्यदेवने चार बोलों द्वारा स्वतंत्र वस्तुस्वरूप समझाया है; उल्ले समझ ले तो कहीं भ्रम न रहे।
एक समयमें तीनकाल–तीमलोकको जाननेवाले सर्वत्र परमात्मा वीतराग तीर्थकरदेषकी दिव्यध्वनिमें भाया हुआ यह तस्व है और संतोंने इसे प्रगट किया है।
बर्फ के संयोगसे पानी ठंडा हुआ और अग्निके संबोगसे गर्म हुमा-ऐसा अबानी देखता है, परन्तु पानीके रजकणोंमें ही ठंडी-गर्म अवस्थारूप परिणमित होने का स्वभाव है उसे अक्षणी नहीं देखता । माई! वस्तुका स्वरूप ऐसा ही है कि अवस्थाकी स्थिति एकरूप न रहे। वस्तु कूटस्थ नहीं है परन्तु बहते हुए पानीकी भौति द्रवित होती है-पर्यायको प्रवाहित करती है, उस पर्यायका प्रवाह वस्तुमें से प्राता है संयोगमेंसे नहीं आता। भिन्न प्रकारके संयोगले कारण अवस्थाकी भिन्नता , मथवा संयोग बदले इसलिये अवस्था बदल यई-ऐसा भ्रम बहानीको