________________ 264] [स्वतंत्रताकी शेषणा तथा सम्यग्ज्ञान होता है। अब, उस काल कुछ चारित्र-दोषसे रागादि परिणाम रहे वही भी अशुद्ध निश्चयनयसे आत्माका परिणमन होनेसे आत्माका कार्य है-ऐसा धर्मी जीव जानता है। उसे जाननेकी अपेक्षासे व्यवहारनयको उस कालमें जाना हुआ प्रयोजनवान कहा है। धर्मीको द्रव्यका शुद्धस्वभाव लक्षमें आ गया है इसलिये सम्यक्त्वादि निर्मल कार्य होते हैं और जो राग शेष रहा है उसे भी वे अपना परिणमन जानते हैं परन्तु अब उसकी मुख्यता नहीं है, मुख्यता तो स्वभावकी हो गई है। पहले अहानदशामें मिथ्यात्वादि परिणाम थे वे भी स्वद्रव्यके अशुद्ध उपादानके आश्रयसे ही थे परन्तु जब निश्चित किया कि मेरे परिणाम अपने द्रव्यके ही आश्रयसे होते हैं तब उस जीवको मिथ्यात्वपरिणाम नहीं रहते; उसे तो सम्यक्त्वादिरूप परिणाम ही होते हैं। अब जो रागपरिणमन साधकपर्यायमें शेष रहा है उसमें यद्यपि उसे एकत्वबुद्धि नहीं है तथापि वह परिणमन अपना है-पेसा वह जानता है। ऐसा व्यवहारका शान उस काल प्रयोजनवान है। सम्यग्बान होता है तब निश्चय-व्यवहारका स्वरूप यथार्थ ज्ञात होता है, तब द्रव्य-पर्यायका स्वरूप ज्ञात होता है, तब कर्ता. कर्मका स्वरूप ज्ञात होता है और स्वद्रष्यके लक्षसे मोक्षमार्गरूप कार्य प्रगट होता है। उसका कर्ता आत्मा स्वयं है। -इसप्रकार इस 2113 कलशमें आचार्यदेवने चार बोलों द्वारा स्पष्टरूपसे अलौकिक वस्तुस्वरूप समझाया है, उसका विवेचन पूर्ण हुआ / इति स्वतंत्रताकी घोषणा पूर्ण * जय जिनेन्द्र * बन्द .. ..