________________
{ स्वतंत्रताको घोषणा पानकी इच्छा हुई और रुपये दिये गये, वहाँ रुपये जानेकी क्रिया भी हाथके आश्रित नहीं, हाथका हिलना इच्छाके आश्रित नहीं, और इच्छाका परिणमन वह ज्ञानके आश्रित नहीं है। सभी अपने-अपने माश्रयभूत वस्तुके माधारसे हैं।
देखो, यह सर्व विज्ञानपाठ है। ऐसा वस्तुस्वरूपका शान सच्चा पदार्थ विज्ञान है। जगसके पदार्थोंका स्वभाव ही ऐसा है कि वे सदा एकरूप नहीं रहते, परन्तु परिणमन करके नवीन-नवीन अवस्थारूप कार्य किया करते हैं, यह बात चौथे बोल में कही जायगी । जगतके पदार्थोका स्वभाव ऐसा है कि वह नित्यस्थायी रहे और उसमें प्रतिक्षण नवीन-नवीन अवस्थारूप कार्य उसके अपने आश्रित हुआ करे । वस्तु. स्वभावका ऐसा जान ही सम्यग्ज्ञान है।
जीवको इच्छा हुई इसलिये हाथ हिला और सौ रुपये दिये गये-ऐसा नहीं है। इच्छाका भाधार आत्मा है, हाथ और रुपयोंका आधार परमाणु है। रुपये जाना थे इसलिये इच्छा हुई ऐसा भी नहीं है। हाथका हलम-खलन वह हाथके परमाणुओंके आधारसे है। रुपयोंका आना-जाना वह रुपयोंके परमाणुओंके आधारसे है। इच्छाका होना वह आत्माके चारित्रगुणके आधारसे है।
यह तो भिन्न-भिन्न द्रव्यके परिणामकी भिन्नताकी बात हुई; यहाँ तो उससे भी आगे अन्तरकी बात लेना है। एक ही द्रव्यके अनेक परिणाम भी एक-दूसरेके आश्रित नहीं है ऐसा बतलाना है । राग और शान दोनोंके कार्य भिन्न हैं, एक-दूसरे के आश्रित नहीं है।
किसीने गाली दी और जीवको द्वेषके पाप-परिणाम हुए, वहाँ वे पापके परिणाम प्रतिकूलताके कारण नहीं हुए, और गाली देनेवालेके आश्रित भी नहीं हुए, परन्तु चारित्रगुणके आश्रित हुए हैं, चारित्रगुणने उस समय उस परिणामके अनुसार परिणमन किया है। अन्य तो निमित्तमात्र हैं।
अब वेषके समय उसका भान हुभा कि 'मुझे यह द्वेष हुआ' यह शानपरिणाम हानगुणके आभित है, क्रोधके माश्रित नहीं है । शानस्वभावी द्रव्यके भाभित हानपरिणाम होते हैं, मन्यके आश्रित नहीं होते। इसीप्रकार सम्यग्दर्शन परिणाम सम्यमान परिणाम, आनन्द परिणाम इत्यादिमें भी ऐसा ही समझना । यह ज्ञानादि परिणाम इव्यके आभित है, अन्यके भाभित नहीं है, तथा परस्पर एक-दूसरे के माश्रित भी नहीं है।