Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 170
________________ १५८] [स्वतंत्रताकी घोषणा उस-उस पदार्थके बिना नहीं होती। सोना नहीं है और गहने बन गये, वस्तु नहीं है और अवस्था हो गई-ऐसा नहीं हो सकता। अवस्था है वह त्रैकालिक वस्तुको प्रगट करती है-प्रसिद्ध करती है कि यह अवस्था इस वस्तुकी है। जैसे कि-जड़कर्मरूप पुद्गल होते हैं, वे कर्मपरिणाम कर्ताके बिना नहीं होते। अब उनका कर्ता कौन ?-तो कहते हैं कि-उस पुद्गलकर्मरूप परिणमित होने वाले रजकण ही कर्ता हैं; मात्मा उनका कर्ता नहीं है। -मात्मा कर्ता होकर जड़कर्मका बंध करे-ऐसा वस्तुस्वरूपमें नहीं है। -जड़कर्म आत्मा को विकार करायें-ऐसा वस्तुस्वरूपमें नहीं है। -मंदकषायके परिणाम सम्यक्त्वका आधार हो-ऐसा वस्तुस्वरूपमें नहीं है। -शुभरागसे क्षायिकसम्यक्त्व हो-ऐसा वस्तुस्वरूपमें नहीं है। तथापि अज्ञानी ऐसा मानता है-यह सब तो विपरीत है-अन्याय है। भाई, तेरे यह अन्याय वस्तुस्वरूपमें सहन नहीं होंगे । वस्तुस्वरूपको विपरीत माननेसे तेरे आत्माको बहुत दुःख होगा,-ऐसी करुणा सन्तोंको आती है । सन्त नहीं चाहते कि कोई जीव दुःखी हो । जगतके सारे जीव सत्यस्वरूपको समझें और दुःखसे छूटकर सुख प्राप्त करें ऐसी उनकी भावना है। भाई! तेरे सम्यग्दर्शनका आधार तेरा आत्मद्रव्य है । शुभराग कहीं उसका आधार नहीं है। मन्दराग वह कर्ता और सम्यग्दर्शन उसका कार्य ऐसा त्रिकालमें नहीं है। वस्तुका जो स्वरूप है वह तीनकालमें आगे-पीछे नहीं हो सकता । कोई जीव अज्ञानसे उसे विपरीत माने उससे कहीं सत्य बदल नहीं जाता । कोई समझे या न समझे, सत्य तो सदा सत्यरूप ही रहेगा, वह कभी बदलेगा नहीं । जो उसे यथावत् समझेंगे वे अपना कल्याण कर लेंगे और जो नहीं समझेंगे उनकी तो बात हो क्या ? वे तो संसारमें भटक ही रहे हैं। देखो, वाणी सुनी इसलिये बान होता है न! परन्तु सोनगढ़वाले इन्कार करते है कि 'वाणीके आधारसे शान नहीं होता;-ऐसा कहकर कुछ लोग कटाक्ष करते हैं, लेकिन भाई! यह तो वस्तुस्वरूप है; त्रिलोकीनाथ सर्वक्ष परमात्मा भी दिव्यध्वनिमें यही कहते हैं कि-बान आत्माके आश्रयसे होता है, शान वह आत्माका कार्य है, विष्यध्वनिके परमाणुका वह कार्य नहीं है। जानकार्यका कर्ता आत्मा हैन कि वाणीके रजकण? जिस पदार्थके जिस गुणका जो वर्तमान हो वह मन्य

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