Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 153
________________ [ . भगवानकी भक्ति करते हुये कहते हैं कि हे प्रभो ! जगतमें उत्कृष्ट शान्तरसरूप परिणमित जितने रजकण थे वे सब आपकी देहरूप परिणमित हो गये हैं। इस कथनमें गहन भाव भरे हैं । प्रभो, मापके केवलज्ञानकी और बैतम्यक उपशमरसकी तो अपूर्वता, और उसके साथकी परमऔदारिक देहमें भी अपूर्वता,-ऐसी देह अन्यको नहीं होती। आराधककी सभी बात जगतसे अनोखी है, इसकी आत्माकी शुद्धता भी जगतसे अनोखी है और इसका पुण्य भी अनोखा है। इसप्रकार मोक्ष और पुण्यफल दोनोंको बात की: फिर भी कहते हैं कि हे मुमुक्षु ! तुझे आदरणीय तो मोक्षका ही पुरुषार्थ है: पुण्य नो इसका भानुषंगिक फल है अर्थात अनाजके माथके घासकी तरह यह तो बीचमें सहज ही आ जाता है। इसमें भी जहाँ हेयबुद्धि है वहाँ श्रावकके लिये पापकी तो बात ही कैसो ? इसप्रकार पी श्रावकको मोक्षपुरुषार्थकी मुख्यताका उपदेश किया और उसके साथ पुण्यके शुभपरिणाम होते हैं यह भी बताया। अरे जीव! तू सर्वशकी और ज्ञानकी प्रतीति बिना धर्म क्या करेगा? रागमें स्थित रहकर सर्वक्षकी प्रतीति नहीं होती; रागसे जुदा पड़कर, ज्ञानरूप होकर, सर्वरको प्रतीति होती है। इसप्रकार ज्ञानस्वभावके लक्षपूर्वक सर्वशकी पहिचान करके उसके वचनानुसार धर्मको प्रवृत्ति होती है । सम्यकदृष्टि-बानी के जो वचन हैं वे भी सर्वअनुसार है, क्योंकि उसके हृदयमें सर्वदेव विराज रहे हैं। जिसके हृदयमें सर्वह न हो अर्थात् सर्व को जो न मानता हो उसके धर्मवचन सच्चे नहीं होते । इसप्रकार सर्वतकी पहचान धर्मका मूल है। १ Indane .

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