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[भावकधर्म प्रकाश और बीच भूमिकानुसार प्रतादि व्यवहारका पालन करते हुए अंतमें अनन्तसुखके मंडाररूप मोक्षको साधते है। ऐसा मोक्षमार्ग ही मुमुक्षुका परम कर्तव्य है, अर्थात् वीतरागता कर्तव्य है: राग कर्तव्य नहीं। वीतरागता न हो वहाँ तक क्रमशः जितना राग घटे उतना घटाना प्रयोजनवान है। पहले ऐसी वीतरागी सम्यक्दृष्टि करे पीछे ही 'धर्ममें धरण पड़ते हैं, इसके बिना तो, कलश-टीकामें पंडित श्री राजमलजी कहते है, "मरके चूरा होते हुए बहुत कष्ट करते हैं तो करो, तथापि ऐसा करते हुए कर्ममय तो नहीं होता' । देखिये, ३०० वर्ष पहले पंडित बनारसीदासजीने श्री राजमलजी को 'समयसार नाटकके मरमी' कहा है।
भावकधर्मके मूलमें भी सम्यग्दर्शन तो होता ही है। ऐसे सम्यक्त्व सहित राग घटानेका जो उपदेश है यह हितकारी उपदेश है। भाई, किसी भी प्रकार जिनमार्ग को पाकर तू स्वद्रव्यके आश्रयके बल द्वारा राग घटा उसमें तेरा हित है: दान आदि का उपदेश भी उसी हेतु दिया गया है। कोई कहे कि खूब पैसा मिले तो उसमेंसे थोड़ा दानमें लगाऊँ (दस लाख मिले तो एक लाख लगाऊँ)-इसमें तो उलटी भावना हुई, लोभका पोषण हुआ; पहले घर को आग लगा और पीछे कुआँ खोदकर उसके पानीसे माग बुझाना-सप्रकारको यह मूर्खता है। वर्तमानमें पाप बाँधकर पीछे दानादि करनैको कहता है, इसकी अपेक्षा वर्तमानमें ही तू तृष्णा घटा लेना भाई! एक बार आत्माको जोर देकर तेरी रुचिकी दिशा ही बदल डाल कि मुझे राग अथवा राग फले कुछ नहीं चाहिये, मात्माकी शुद्धताके अतिरिक्त अन्य कुछ भी मुझे मी । ऐसी रुचिकी दिशा पलटनेसे तेरी दशा पलट जावेगी; अपूर्व दशा प्रगट हो विगी।
धीको जहाँ आत्माकी अपूर्व दशा प्रगटो वहाँ उसे देहमें भी एक प्रकार की अपूर्णता मा गई, क्योंकि सम्यक्त्व आदिमें निमित्तभूत होवे ऐसी देह पूर्वमें कभी नहीं मिली थीः अथवा सम्यक्त्वसहितका पुण्य जिसमें निमित्त हो ऐसी देह पूर्वमें मिथ्यात्वदशामें कभी नहीं मिली थी। वाह, धर्मोका आत्मा अपूर्व, धर्मीका पुण्य भी अपूर्व और धर्मीका देह भी अपूर्व ! धर्मी कहता है कि यह देह अंतिम है अर्थात् फिरसे पेसा (विराधकपनाका) देह मिलनेका नहीं; कदाचित् कुछ भव होंगे और देह मिलेंगे तो वे आराधकभाष सहित ही होंगे, अतः उसके रजकण भी पूर्वमें न आये हों ऐसे अपूर्व होंगे, क्योंकि यहाँ जीवके भावमें (शुभमें भी) अपूर्वता मा गो, धर्मी जीवकी सभी बाते अलौकिक है । भक्तामर स्तोत्रमें मानतुंगस्वामी