Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 150
________________ १३८ ] [भावकधर्म-प्रकाश माचार्यदेव कहते हैं कि अहो, सच्चा सुख तो एक मोक्षपदमें ही है, अतः मुमुक्षुओंको उसका ही पुरुषार्थ करना चाहिये । इसके सिवाय अन्य भाव तो विपरीत होनेसे हेय हैं । देखिये, इसे विपरीत और हेय कहा उसमें शुभराग भी आ गया । इसप्रकार उसे विपरीत और हेयरूपमें स्वीकार करके, पश्चात् यदि वह मोक्षमार्ग सहित होवे तो उसे मान्य किया है, अर्थात् व्यवहारसे उसे मोक्षमार्गमें स्वीकार किया है । परन्तु जो साथमें निश्चय मोक्षसाधन (सम्यग्दर्शनादि ) न होवे तो मोक्षमार्ग बिना ऐसे अकेले शुभरागको मान्य नहीं करते अर्थात् उसे व्यवहार मोक्षसाधन भी नहीं कह सकते । इसके सिवाय जो काम और अर्थ सम्बन्धी पुरुषार्थ है वह तो पाप ही है, अतः सर्वथा हेय है। भाई, उत्तम सुखका भंडार तो मोक्ष : अतः मोक्षपुरुषार्थ ही सर्व पुरुषार्थ में श्रेष्ठ है । पुण्यका पुरुषार्थ भी इसकी अपेक्षा हल्का है; और संसारके विषयोंकी प्राप्ति हेतु जितने प्रयत्न है वे तो एकदम पाप है, अतः वे सर्वथा त्याज्य है। अब साधकको पुरुषार्थके साथ अणुव्रतादि शुभरागरूप जो धर्मपुरुषार्थ है वह भसद्भूत व्यवहारसे मोक्षका साधन है मतः श्रावककी भूमिकामें वह भी व्यवहारनयक विषयमें ग्रहण करने योग्य है। मोक्षका पुरुषार्थ तो सर्वश्रेष्ठ है, परन्तु उसके अभावमें (अर्थात् निचली साधकदशामें) व्रत-महावतादिरूप धर्मपुरुषार्थ जरूर ग्रहण करना चाहिये। अज्ञानी भी पाप छोड़कर पुण्य करता है तो इसे कोई अस्वीकार नहीं करते: पापकी अपेक्षा तो पुण्य भला ही है। परन्तु कहते हैं कि भाई, मोक्षमार्ग बिना तेरा अकेला पुण्य शोभा नहीं पाता है। क्योंकि जिसे मोक्षमार्गका लक्ष्य नहीं वह तो पुण्यके फलमें मिले हुये भोगोंमें आसक्त होकर पुनः पापमें चला जावेगा। मतः बुधजन-बानी-विज्ञान ऐसे पुण्यको परमार्थसे तो पाप कहते हैं । (देखो, योगीन्द्रदेव आचार्यकृत योगसार दोहा नं. ७१-७२ समयसार गा. १६३, पश्चात् श्री जयसेनाचार्यकी सं. टीकामें परिशिष्ट पुण्य-पाप अधिकार ।) मोसमें ही सच्चा सुख है ऐसा जो समझे वह रागमें या पुण्यफलमें सुख कैसे माने ?-नहीं ही माने । जिसकी दृष्टि अकेले रागमें है और उसके फलमें जिसे सुख लगता है उसे तो शुभभावके साथ भोगकी अभिलाषा पड़ी है, अतः इस शुभ को मोक्षमार्गमें मान्य करते नहीं, मोसके साधनका व्यवहार उसे लागू नहीं पड़ता। धर्मीको मोक्षमार्ग साधते साधते बीबमें अभिलाषा रहित और भद्धामें हेयबुद्धि सहित शुभराग रहता है, उसमें मोसके साधनका व्यवहार लागू पड़ता है। परन्तु

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