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भावकधर्म-प्रकाश ]
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मोक्षमार्ग में निश्चयसहित व्यवहारधर्म मान्य ह
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भाई, उत्तम सुखका भंडार तो मोक्षमें है, इसलिये मोम पुरुषार्थ ही सब पुरुषार्थों में श्रेष्ठ है ! साधकको मोक्षपुरुषार्थके साथ अणुव्रतादि शुभरागरूप जो धर्मपुरुषार्थ है वह व्यवहारसे मोक्षका साधन है, इसलिये श्रावककी भूमिका में वह भी ग्रहण करने योग्य है । परन्तु मोक्षके पुरुषार्थ बिना मात्र पुण्य ( मात्र व्यवहार ) की शोभा नहीं, इसका तो फळ संसार है !
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श्रावक पुण्यफलको प्राप्त करके मोक्ष पाता है ऐसा बताया। अब कहते हैं कि शुभराग होते हुए भी धर्मीको मोक्षपुरुषार्थ हो मुख्य है और वह उपादेय और उसके साथका अणुवतादिरूप जो व्यहारधर्म है वह भी मान्य है- .
पुंसोऽर्थेषु चतुर्षु निश्वळतरो मोक्षः परं सत्सुखः शेषास्तद्विपरीतधर्म कलिता हेया मुमुक्षोरतः । तस्मात्तत्पदसाधनत्वधरणो धर्मोपि नो संमतः यो भोगादिनिमित्तमेव स पुनः पापं बुधैर्मन्यते ।। २५ ।।
धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोंमें मात्र मोक्ष ही ि नाशी और सत्यसुखरूप है, शेष तीन तो इससे विपरीत स्वभाव वाले हैं अर्थात् अस्थिर और दुःखरूप हैं: अतः मुमुक्षुके लिये वे हेय हैं और केवल मोक्ष ही उपादेय है । तथा उस मोक्षके साधनरूप वर्तता होवे वह धर्म भी हमें मान्य हैसंमत है, अर्थात् मोक्षमार्गको साधते साधते उसके साथ महावत अथवा अणुवतके जो शुभभाव होते हैं वे तो संमत हैं, क्योंकि वे भी व्यवहारसे मोक्षके साधन हैं, परन्तु जो मात्र भोगादिके निमित्त है उन्हे तो पंडितजन पाप कहते हैं ।