Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 159
________________ भाबकधर्म - प्रकाश ] [ २४७ 6. आशीर्वाद ? क्या तेरे लोभ-पोषणके लिये ज्ञानी तुझे आशीर्वाद दें ! शानी तो धर्मकी आराधनाको आशीर्वाद देते हैं । ५ लाख रुपये खर्च करनेकी बात करके वास्तवमें तो इसे २० लाख लेना है, और इसकी ममता पोषनी है । ' जैसे कोई माने कि प्रथम जहर खा लूँ पीछे उसकी दवा करूंगा " - इसके जैसे तेरी मूर्खता है । तुझे वास्तवमें धर्मका प्रेम हो और तुझे राग घटाना हो तो अभी तेरे पास जो है उसमेंसे राग घटाना ! तुझे राग घटाकर दान करना हो तो कौन तुझे रोकता है ? भाई, ऐसा मनुष्यपना और ऐसा अवसर प्राप्त कर तू धन प्राप्त करने की तृष्णाके पापमें अपना जीवन नष्ट कर रहा है। इसके बदले धर्मको आराधना कर। धर्म की आराधना द्वारा ही मनुष्यभवकी सफलता है । धर्मकी आराधना के बीच पुण्यफलरूप बड़े-बड़े निधान सहज ही मिल जावेंगे, तुझे इसकी इच्छा ही नहीं करनी पड़ेगी । - ' मांगे उसके दूर और त्यागे उसके आगे ' - पुण्यकी इच्छा करता है उसे पुण्य नहीं होता । मांगे उसके आगे अर्थात् कि दूर जाता है; और त्यागे उसके आगे अर्थात् जो पुण्यकी रुचि छोड़कर चैतन्यको साधता है उसको पुण्यका वैभव समक्ष आता है। धर्मी जीव आत्माका भान करके और पुण्यकी अभिलाषा सर्वथा छोड़कर मोक्ष तरफ चलने लगा है, बहुत-सा रास्ता तय कर लिया है, थोड़ा शेष है, वहाँ पुरुषार्थकी मंदताले शुभराग हुआ अर्थात् स्वर्गादिका एक या दो उत्तम भवरूपी धर्मशाला में थोड़े समय रुकता है, उसे ऐसा ऊँचा पुण्य होता है कि जहाँ जन्मता है वहाँ समुद्र में मोती पकते हैं, आकाशमेंसे रजकण उत्कृष्ट रत्नरूप परिणमन कर बरसते हैं, पथ्थरकी खानमें नीलमणि उत्पन्न होते हैं, राजा हो वहाँ उसे प्रजासे बरजोरी कर आदि नहीं लेना पड़ता । परन्तु प्रजा स्वयं चलकर देने आती है, और संत-मुनि-धर्मात्माओंका समूह और तीर्थंकरदेवका संयोग मिलता है और संतोंके सत्संगमें पुनः आराधकभाव पुष्ट कर, राज-वैभव छोड़ मुनि होकर केवलज्ञान प्रगट कर साक्षात् मोक्ष प्राप्त करता है । सर्वशदेवकी पहिचानपूर्वक श्रावकने जो धर्मकी आराधना की उसका यह उत्तम फल कहा है, वह जयवंत हो... और उसे साधनेवाले साधक जगतमें जयवंत हों ! - ऐसे आशीर्वाद सहित यह अधिकार समाप्त होता है । ( श्री पद्मनन्दीपचीसीके देशव्रत उद्योतन पर पूज्य श्री कानजीस्वामीके प्रवचन पूर्ण हुए । )

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