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[भावकधर्म-प्रकाश यह स्वर्गमें जाता है। श्रावकको ऐसी भावना नहीं है कि मैं पुण्य करूँ और स्वर्गमें आऊँ परन्तु जैसे किसीको चौबीस गाँव जाना हो और सोलह गाँव चलकर बीचमें थोड़े समय विश्रामके लिये रुक जावे, वह कोई वहाँ रुकनेके लिये नहीं, उसका ध्येय तो चौबीस गाँव जानेका है; उसोप्रकार धर्मीको सिद्धपदमें जाते-जाते, राग छूटते छूटते कुछ राग शेष रह गया, इसलिये बीच में स्वर्गका भव होता है, परन्तु इसका ध्येय कोई वहाँ रुकनेका नहीं, इसका ध्येय तो परमात्मस्वरूपकी प्राप्ति करना ही है। मनुष्यभवमें हो अथवा स्वर्गमें हो, परन्तु वह परमात्मपदकी प्राप्ति की भावनासे ही जीवन बिताता है । देखो तो, श्रीमद् राजचन्द्रजी भी गृहस्थपनामें रहकर मुनिदशाकी कैसी भावना भाते थे ? ( 'अपूर्व-अवसर' काव्यमें मुनिपदसे लेकर सिचदशा तकके परमपदकी भावना भायी है।) आंशिक शुद्धपरिणति सहित धर्मात्माका जीवन भी अलौकिक होता है।
पुण्य और पाप, अथवा शुभ या अशुभराग विकृति है; उसके अमावसे मानन्ददशा प्रगट होती है वह स्वभाविक मुक्तदशा है । श्रावक साधकको भी ऐसी आनन्ददशाका नमूना प्रगट हो गया है ।-ऐसी दशाको पहचानकर उसकी भावना भाकर, जिसकार बने उसप्रकार स्वरूपमें रमणता बढ़ाने और रागको घटानेका प्रयत्न करना जिससे अल्पकालमें पूर्ण परमात्मदशा प्रगट होनेका प्रसंग आवे ।
भाई, सम्पूर्ण राग न छूटे और तू गृहस्थदशामें हो तब तेरी लक्ष्मीको धर्मप्रसंगमें खर्च करके सफल कर । जैसे चन्द्रकान्त-मणिकी सफलता कय कि चन्द्रकिरणके स्पर्शसे उसमेंसे अमृत झरे तबः उसीप्रकार लक्ष्मीकी शोभा कब? कि सत्पात्रके योगसे वह दानमें खर्च होवे तब । श्रावक-धर्मीजीव निश्चयसे तो अन्तरमें स्वयं अपनेका वीतरागभावका दान करता है, और शुभराग द्वारा मुनियोंके प्रति, साधर्मियों के प्रति भक्तिसे दानादि देता है, जिनेन्द्रदेवकी पूजनादि करता है-ऐसा उसका व्यवहार है। इसप्रकार चौथी-पाँचवीं भूमिकामें धर्माको ऐसा निश्चय-व्यवहार होता है। कोई कहे कि चौथी भूमिकामें जरा भी निश्चयधर्म नहीं होता-तो वद पात असत्य है: निश्चय बिना मोक्षमार्ग कैसा? और, वहाँ निश्चयधर्मके साथ पूजा-दान-अणुवत आदि जो व्यवहार है उसे भी जो न स्वीकारे तो वह भी भूल है। जिस भूमिकामें जिसप्रकारका निश्चय-व्यवहार होता है उसे बरावर स्वीकार करना चाहिये । व्यवहारके आश्रयसे मोक्षमार्ग माने तो ही व्यवहारको स्वीकार किया कहा जाय' ऐसा श्रद्धान ठोक नहीं है। बहुतसे ऐसा कहते हैं कि तुम