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[ श्रावकधर्म प्रकाश के पास ही बैठा रहूँ। भगवानकी पूजा आदिके बर्तन भी उत्तम हो; घरमें तो अच्छे बर्तन रखे और पूजन करने हेतु · मामूली बर्तन ले जावे-ऐसा नहीं होता। इसप्रकार श्रावकको तो चारों ओरसे सभी पहलुओंका विवेक होता है। साधर्मियों पर भी उसे परम वात्सल्यभाव होता है।
जिसे बीतरागस्वभावका भान हुआ है और मुनिदशाकी भावना वर्तती है ऐसे जीवका यह वर्णन है। उसके पहले जिज्ञासु भूमिकामें भी यह बात यथायोग्य समझ लेना चाहिए। धर्मके उत्सवमें जो भक्तिपूर्वक भाग नहीं लेता, जिसके घरमें दान नहीं होता उसे शास्त्रकार कहते हैं कि भाई ! तेरा गृहस्थाश्रम शोभा नहीं पाता। जिस गृहस्थाश्रममें रोज-रोज धर्मके उत्सव हेतु दान होता है, जहाँ धर्मात्माका आदर होता है वह गृहस्थाश्रम शोभा पाता है और वह श्रावक प्रशंसनीय है। अहा! शुद्धात्माको राष्टिमें लेते हो जिसकी दृष्टिमेंसे सभी राग छूट गया है उसके परिणाममें रागकी कितनी मंदता होती है ! और यह मंद राग भी सर्वथा छूटकर वीतरागता होवे तब ही केवलज्ञान और मुक्ति होती है !-ऐसे मोक्षका जो साधक हुआ उसे रागका आदर कैसे होवे ? अपने वीतरागस्वभावका जिसे भान है वह सामने वीतरागबिम्पको देखते ही साक्षात्की तरह ही भक्ति करता है, क्योंकि इसने अपने शानमें तो भगवान साक्षातरूप देखे हैं ना!
श्रावकको स्वभावके आनंदका अनुभव हुमा है, स्वभावके आनंदसागरमें एकाप्र होकर बारम्यार उसका स्वाद चखता है, उपयोगको अंतरमें जोड़कर शान्तरसमें बारम्बार स्थिर होता है, परन्तु वहाँ विशेष उपयोग नहीं ठहरता इसलिये अशुभ प्रसंगोंको छोड़कर शुभ प्रसंगमें वह वर्तता है, उसका यह वर्णन है। ऐसी भूमिकावाला श्रावक आयु पूर्ण होने पर स्वर्गमें ही जावे-ऐसा नियम है, क्योंकि श्रावकको सीधी मोक्षप्राप्ति नहीं होती; सर्वसंगत्यागी मुनिपनेके बिना सीधी मोक्षप्राप्ति किसीको नहीं होती। साथ ही पंचमगुणस्थानी श्रावक स्वर्ग सिवाय अन्य कोई गतिमें नहीं जाता है। अतः श्रावक शुभभावके फलमें स्वर्गमें ही जाता है, और पीछे क्या होता है वह बात आगेकी गाथामें कहेंगे।
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