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भावकधर्म-प्रकाश ] रागकी दशा बदल गई है। साथ ही साथ वह यह भी जानता है कि यह राग पुण्यावका कारण है, और जितनी वीतरागी शुद्धता है उतना ही मोसमार्ग है।
जिन-मन्दिरके ऊपर कलश तथा ध्वज चढ़बानेका भी महान उत्सव होता है। पूर्व समयमें तो शिखर में भी कीमती रत्न लगवाते थे, वे जगमगाते थे। नये-नये वीतरागी चित्रों द्वारा मन्दिरकी शोभा करे-स प्रकार भावक सर्वप्रकारसे संसारका प्रेम कम करके धर्मका प्रेम बढ़ाता है। जिसे वीतरागमार्गके प्रति प्रेम उल्लसित हुमा है उसे ऐसे भाव श्रावकदशामें आते हैं। इस धूलके ढेर जैसा शरीरका फोटो किस प्रकार निकलवाता है ? और कितने प्रेमसे देखता है और शंगार करता है? तो वीतराग-जिनबिम्ब वीतरागभगवानका फोटो है, परमात्मदशा जिसे प्रिय हो उसे इनके प्रति प्रेम और उल्लास आता है।
केवल कुल-विशेषमें जन्म लेनेसें श्रावकपना नहीं हो जाता, परन्तु सर्पक्षकी पहिचान पूर्वक श्रावकधर्मका आचरण करनेसे श्रावकपना होता है । समयमारमें जिस प्रकार एकत्व-विभक्त शुद्धात्मा बताया है उस प्रकार शुद्ध मात्माकी पहिचानपूर्वक सम्यकदर्शन होवे तो श्रावकपना शोभा देता है। सम्यग्दर्शनके बिना भावकपना शोभा नहीं देता । निर्विकल्प अनुभूति सहित सम्यग्दर्शन होवे उसके बाद मानन्दकी अनुभूति और स्वरूपस्थिरता बढ़ जानेसे अप्रत्याख्यान कषायोंका भी प्रभाव होता है, ऐसी आंशिक अरागी दशा होवे उसका नाम धावकपना है । और उस भूमिकामें जो राग बाकी है उसमें जिनेन्द्रदर्शन-पूजन, गुरुसेवा, शासस्वाध्याय, दान, अणुवत आदि होते हैं, इसलिये वह भी व्यवहारसे श्रावकका धर्म है। ऐसे भावकधर्मका यह प्रकाशन है।
__वर्तमानमें तीर्थकर भगवान साक्षात् नहीं है परन्तु उनकी वाणी तो है, इस पाणीसे भी बहुत उपकार होता है, इसलिये उस वाणीकी (शासकी) भी प्रतिष्ठा की जाती है। और भगवानकी मूर्ति समक्ष देखनेसे ऐसा लगता है मानो साक्षात् भगवान मेरे सामने ही विराज रहे हैं-स प्रकार अपने ज्ञानमें भगवानको प्रत्यक्ष करके साधकको भक्ति-भाष पल्लसित होता है। प्रतिदिन भगवानका अभिषेक करते समय प्रभुका स्पर्श होने पर श्रावक महान हर्ष मानता है कि अहो, माज मैंने भगवानके चरण स्पर्श किये, माज भगवानकी वरण-सेवाका परम सौभाग्य मिला । इस प्रकार धर्मात्माके हृदयमें भगवानके प्रति प्रेम उमड़ता है। मन्दिरमें भगवानके पाससे घर जाना पड़ता है वहाँ इसे अच्छा नहीं लगता, उसे लगता है कि भगवान