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[ श्रावकधर्म-प्रकाश, आनन्दकन्द आत्मा कोई निर्धन नहीं, उसका आत्मा रोगी नहीं, उसका आत्मा काला, कुबड़ा अथवा चांडाल नहीं, उसका आत्मा स्त्री नहीं, वह तो चिदानन्दस्वरूप ही, अपनेको अनुभवता है, अन्दरमें अनन्त गुणोंकी निर्मलताका खजाना उसके पास है।
श्री दौलतरामजी कवि सम्यग्दृष्टिकी अन्तरंगदशाका वर्णन करते हुए कहते हैं कि
" चिन्मूरत दृगधारीकी मोहे रीति लगत है अटापटी,
बाहर नारकीकृत दुख भोगत अन्तर सुखरस गटागटी।" नारकीको बाह्यमें क्या कोई अनुकूलता है ? नहीं है। तो भी वह सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है; छोटा मेंढ़क भी सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है; वह प्रशंसनीय है । दाई: द्वीपमें समवसरण आदिमें बहुतसे तिर्यंच सम्यग्दृष्टि है, इसके बाद ढाई द्वीपके
वाहर तो असंख्यात तिर्यंच आत्माके शानसहित, चौथे-पाँचवें गुणस्थानमें विराज रहे हैं, सिंह-वाघ. और मर्प जैसे प्राणी भी सम्यग्दर्शन प्राप्त करते हैं, वे जीव प्रशंसनीय हैं। अन्दरसे चैतन्यका पाताल फोड़कर सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ है-उसकी महिमा: की क्या बात ! बाहरके संयोगसे देखे उसे यह महिमा नहीं दिखाई देती है, परन्तु अन्दर आत्मा
की दशा क्या है, उसे पहिचाने तो उसकी महिमा
| का ज्ञान होवे । सम्यग्दृष्टिने आत्माके आनन्द को देखा है, उसका स्वाद चखा है, मेदशान हुआ है, वह पास्तवमें आदरणीय है, पूज्य है। बड़े राजा-महाराजाको प्रशंसनीय नहीं कहा, स्वर्गके देवको प्रशंसनीय नहीं कहा, परन्तु सम्यग्दृष्टिको प्रशंसनीय कहा है, फिर भले वह तिर्यच पर्यायमें हो, नरकमें हो, देवमें हो कि मनुष्यमें हो, वह सर्वत्र प्रशंसनीय है। जो सम्यग्दर्शनधर्मका साधन कर रहे हैं वे ही धर्ममें अनुमोदनीय हैं। सम्यग्दर्शन बिना बाय, त्याग-व्रत या शास्त्रज्ञान आदि बहुत हो तो भी आचार्य देव कहते हैं कि यह हमको, प्रशंसनीय नहीं लगता, क्योंकि यह कोई आत्माके हितका कारण नहीं बनता है। हितका मूलकारण तो सम्यग्दर्शन है। करोड़ों-अरबों जीवोंमें एक ही सम्पष्टि हो तो भी वह उत्तम. है-प्रशंसनीय है,. और विपरीत , मार्गमें बहुत हों तो, भी वे..
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