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भावकवर्म-प्रकाश ] है। लक्ष्मी कब चली जावेगी और जीवन कब समाप्त हो जावेगा इसका कोई भरोसा नहीं, कलका करोड़पति अथवा राजा-महाराजा आज भिखारी बन जाता है, भाजका निरोगी दूसरे क्षण मर जाता है, सुबह जिसका राज्याभिषेक हुआ संध्या समय उसकी ही चिता देखने में आती है। भाई, ये तो सब अध्रुव है, इसलिये ध्रुव चैतन्यस्वभावको दृष्टिमें लेकर इस लक्ष्मी आदिका मोह छोड़ । धर्मी श्रावक अथवा जिज्ञासु गृहस्थ अपनी वस्तुमेंसे शक्तिअनुसार याचकोंको इच्छित दान देखें । दान योग्य वस्तुका होता है, अयोग्य वस्तुका दान नहीं होता । लौकिक कथाओं में आता है कि किसी राजाने अपने शरीरका मांस काटकर दानमें दिया, अथवा अमुक भक्तने अपने किसी एक पुत्रका मस्तक दान में दिया,-परन्तु यह वस्तु धर्मसे विरुद्ध है, यह दान नहीं कहलाता, यह तो कुदान है। दान देनेवालोंको भो योग्य-अयोग्यका विवेक होना चाहिये । जो कि आदरणीय धर्मात्मा आदिको आदरपूर्वक दान देवें, और अन्य दीन दुस्खी जीवोंको करुणाबुद्धिसे दान देवें । धर्मीको ऐसी भावना होती है कि मेरे निमित्तसे जगतमें किसी प्राणीको दुःख न हो। सर्व प्राणियोंके प्रति अहिंसाभावरूप अभयदान है । और शास्त्रदान आदिका वर्णन भी पूर्वमें हो गया है। ऐसे दानको मोक्षका प्रथम कारण कहा गया है।
___ प्रश्नः-मोक्षका मूल तो सम्यग्दर्शन है, तो यहाँ दानको मोक्षका प्रथम कारण कैसे कहा?
___ उत्तरः-पहले प्रारम्भमें सर्वक्षकी पहचानकी बात को थी, उस सहितको यह बात है। उसी प्रकार श्रावकको प्रथम भूमिकामें धर्मका उल्लास और दामका माव अवश्य होता है उसे बतानेके लिये व्यवहारसे उसे मोनका प्रथम कारण कहा है। इतना राग घटाना भी जिसे नहीं रुचे वह मोक्षमार्गमें कैसे आवेगा ? वीतरागदृष्टिपूर्वक जितना राग घटा उतना मोक्षमार्ग है। पहले दानादिमें राग घटाना सीखेगा तो आगे बढ़कर मुनिपना लेवेगा और मोक्षमार्गको साधेगा । इस अपेक्षासे दानको मोक्षका प्रथम कारण कहा है-ऐसा समझना ।