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भाषा-प्रकाश ................... [१८] ........
जिनेन्द्र-दर्शनका भावभरा उपदेश ... .........
भगवानकी प्रतिमा देखते ही 'अहो, ऐसे भगवान !' इस प्रकार एक बार भी जो मजदेवके यथार्थ स्वरूपको लक्षगन करले तो कहते हैं कि भवसे तेरा बेड़ा पार है । प्रातःकाल भगवानके दर्शन द्वारा अपने इष्ट-ध्येयको स्मरण करके बादमें ही श्रावक दूसरी प्रवृत्ति करे । इसी प्रकार स्वयं भोजन करनेके पूर्व मुनिवरोंको याद करे कि अहा, कोई सन्त-मुनिराज अथवा धर्मात्मा मेरे आंगनमें पधारें और भक्ति-पूर्वक उन्हें भोजन करा करके पोछे मैं भोजन करूं । देव-गुरुकी भक्तिका ऐसा प्रवाह श्रावकके हृदयमें बहना चाहिये । भाई प्रातःकाल उठते ही तुझे वीतराग भगवान को याद नहीं आती, धर्मात्मा सन्त-मुनि याद नहीं आते और संसारके अवार, व्यापार-धन्धा अथवा स्त्री आदिकी याद आती है, तो तु ही विचार कि नेरी परिणति किस ओर जा रही है?
भगवान् सर्वशदेवकी श्रद्धा पूर्वक धर्मी धावकको प्रतिदिन जिनेन्द्रदेवके दर्शन, स्वाध्याय, दान आदि कार्य होते हैं उसका वर्णन चल रहा है। उसमें सातवीं गाथासे प्रारम्भ करके सत्रहवीं गाथा तक अनेक प्रकारसे दान का उपदेश किया । जो जीव जिनेन्द्रदेवके दर्शन-पूजन नहीं करता तथा मुनियरोंको भक्तिपूर्वक दान नहीं देता उसका गृहस्थपना पत्थरकी नौकाके समान भव-समुद्रमे हुबोनेवाला है -ऐसा मब कहते हैं
नित्यं न विलोक्यते जिनपतिः न स्मयते नाय॑ते न स्तुयेत न दीयते मुनिजने दानं च भल्या परम् । सामध्ये सति यद्गृहाश्रमपदं पाषाणनावा समं तत्रस्वा भवसागरेतिविषमे मजनि नश्यन्ति च ॥१८॥