Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 135
________________ भावकधर्म-प्रकाश ] [१॥ थे, उनके द्वारा इसको प्रतिष्ठा हुई है और इसके सामनेकी पहाड़ी (चन्द्रगिरि) पर एक जिनालयमें उन्होंने गोम्मटसारकी रचना की थी। बाहुबली भगवानकी यह प्रतिमा गोमटेश्वर भी कहलाती है। यह तो सत्तावन फीट ऊँची है और इसका अचिन्त्य-दर्शन है...पुण्य और पवित्रता दोनोंकी झलक उनकी मुद्रा ऊपर चमकती है । और बाहुबली भगवानकी अन्य एक अत्यन्त छोटो (बनेके दाने बराबर) रत्नप्रतिमा मूलबिद्रीमें है। ऐसी प्रतिमा करवानेका उत्साह भाषक-धर्मात्मामोंको आता है ऐसा यहाँ बताना है। देखो, यह किसकी बात चलती है? यह श्रावक धर्मकी बात चलती है। आत्मा रागरहित शुद्धचैतन्यस्वरूप है, उसकी रुचि करके राग घटानेका अन्तरप्रयत्न वह गृहस्थधर्मका प्रकाश करनेवाला मार्ग है। उसमें दानके वर्णनमें जिन-प्रतिमा करानेका विशेष वर्णन किया है। जिस प्रकार, जिसे धन प्रिय है वह धनवानका गुणगान करता है, उसी प्रकार जिसे वीतरागता प्रिय है वह भक्तिपूर्वक वीतरागदेवके गुणगान करता है। उनके विग्हमें उनकी प्रतिमामें स्थापना करके दर्शन-स्तुति करता है। इस प्रकार शुद्धस्वरूपकी दृष्टि रखकर, अशुभ स्थानोंसे बचता है, ऐसा श्रावक-भूमिकाका धर्म है। कोई कहे कि शुद्धता वह मुनिका धर्म, और शुभराग यह श्रावकका धर्म,तो ऐसा नहीं। धर्म तो मुनिको अथवा श्रावकको दोनोंको एक ही प्रकारका रागरहित शुद्धपरिणतिरूप ही है। परन्तु श्रावकको अभी शुद्धता अल्प है वहाँ रागके मेद शिनपूजा, वान आदि होते हैं, इसलिये शुद्धताके साथके इन शुभकार्योंको भी गृहस्थके धर्मरूपसे वर्णन किया है। अर्थात् इस भूमिकामें ऐसे शुभभाष होते हैं। देखिये, नग्न-दिगम्बर सन्त, वनमें बसनेवाले और स्वरूपकी साधनामें छठे-सातवें गुणस्थानमें झलनेवाले मुनिको भी भगवानके प्रति कैसे भाव उल्लसित होते हैं ! वे कहते हैं कि-छोटा-सा मन्दिर बनावे और उसमें जो के दाने जितनी जिन-प्रतिमाको स्थापना करे-उस श्रावकके पुण्यकी अपूर्व महिमा! मर्थात् उसे वीतरागभावकी जो रुचि हुई है उसके महान फलकी क्या बात ! प्रतिमा चाहे छोटो हो-परन्तु वह धीतरागताका प्रतीक है ना! इसकी स्थापना करने वालेको वीतरागका आदर है, उसका फल महान है। कुन्दकुन्दस्वामी तो कहते हैं किबरहंतदेवको बराबर पहचाने तो सम्यकदर्शन हो जावे । जिसे वीतरागता प्रिय लगी, जिसे सर्वशस्वभाव रुचा, उसे सर्वच-वीतरागदेवके प्रति परमभक्तिका उल्लास माता

Loading...

Page Navigation
1 ... 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176