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[ भावकधर्म-प्रकाश
से भक्तिभावपूर्वक जिन-प्रतिमा और जिन-मन्दिर बनवाने का भाव जिसे आता है उसे उच्च जातिका लोकोत्तर पुण्य बँधता है; क्योंकि उसके भावोंमें वीतरागताका बहुमान हुआ है । - पश्चात् भले ही प्रतिमा मोटी हो या छोटी, परन्तु उसकी स्थापनामें वीतरागताका बहुमान और वीतरागका आदर है, यही उत्तम पुण्यका कारण है । भगवान की मूर्तिको यहाँ "जिनाकृति कहा है अर्थात् अरहन्त - जिनदेवकी जैसी आकृति होती है वैसी ही निर्दोष आकृतिवाली जिन-प्रतिमा होती है । जिनेन्द्र भगवान् - मुकुट नहीं पहनते और इनकी मूर्ति वस्त्र मुकुट सहित हो तो इसे जिनाकृति नहीं कहते । जिन प्रतिमा जिनसारखी भाखी आगम माँय । ऐसी निर्दोष प्रतिमा
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जिनशासनमें पूज्यनीय है ।
यहाँ तो कहते हैं कि अहो, जो जीव भक्तिसे ऐसा वीतराग जिनबिम्ब और जिम प्रतिमा कराता है उसके पुण्यकी महिमा वाणीसे कैसे कही जा सकती है ? देखो तो सही, धर्मीके अल्प शुभभावका इतना फल ! तो इसकी शुद्धताको महिमाकी तो क्या बात !! जिसे अन्तरंगमें वीतरागभाव रचा उसे वीतरागताके बाह्य निमित्तोंके प्रति भी कितना उत्साह हो ? एक उदाहरण इसप्रकार आता है कि – एक सेठ जिनमन्दिर बनवाता था, उसमें काम करते हुए पत्थरकी जितनी रज कारीगर द्वारा निकाली जाती उसके वजन के बराबर चाँदी देता था । इसके मनमें ऐसा भाव था कि अहो, मेरे भगवान्का मन्दिर बन रहा है तो उसमें कारीगरोंको भी मैं प्रसन्न करूँ, जिससे मेरा मन्दिरका काम उत्तम हो । उस समयके कारीगर भी सच्चे हृदय वाले थे। वर्तमानमें तो लोगों की वृत्ति में बहुत फेरफार हो गया है। यहाँ तो भगवानके भक्त भावक-धर्मात्माको जिन-मन्दिर और जिन - प्रतिमाका कैसा शुभराग होता है वह बताया है ।
संसार में देखो तो, पाँच-इस लाख रुपयोंकी कमाई हो और लाख-दो लाख roये खर्च करके बंगला बनवाना हो तो कितनी होंश करता है ? कहाँ क्या चाहिये और किसप्रकार अधिक शोभा हो - इसका कितना विचार करता है ? इसमें तो ममताका पोषण है । परन्तु धर्मात्माको ऐसा विचार आता है कि अहो, मेरे भगवान जिसमें बिराजें पेसा जिनमंदिर, उसमें क्या-क्या चाहिये और किस रीतिले अधिक शोभित हो ? – इसप्रकार विचार करके होंशसे ( तनसे, मनसे, धनसे) उसमें वर्तन करता है। वहाँ व्यर्थकी झूठी करकसर अथवा कंजूसाई करता नहीं । भाई, ऐसे धर्मकार्यमें तू उदारता रखेगा तो तुझे ऐसा लगेगा कि मैंने जीवनमें धर्मके लिये कुछ किया है, एकमात्र पापमें ही जिन्दगी नहीं बिगाड़ी, परन्तु धर्म