Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 118
________________ [भावकधर्म-प्रकाश भगवानकी मूर्तिमें 'यह भगवान हैं'-ऐसा स्थापनानिक्षेप वास्तवमें सम्या. दृष्टिको ही होता है। क्योंकि, सम्यग्दर्शनपूर्वक प्रमाणशान होता है, प्रमाणपूर्वक सम्यक्नय होता है, और नयके द्वारा सञ्चा निक्षेप होता है। निक्षेप नय बिना नहीं, नय प्रमाण बिना नहीं और प्रमाण शुद्धात्माकी दृष्टि विना नहीं। अहो, देखो तो सही, यह वस्तुस्वरूप ! जैनदर्शनकी एक ही धारा चली जा रही है। भगवान्की प्रतिमा देखते ही 'अहो, ऐसे भगवान !' ऐसा एक बार भी जो सर्वशदेवका यथार्थ स्वरूप लक्षगत कर लिया, तो कहते हैं कि भवसे तेरा बेड़ा पार है ! यही एकमात्र दर्शन करनेकी बात नहीं की, परन्तु प्रथम तो 'परम भक्ति' सहित दर्शन करनेको कहा है, उसी प्रकार अर्चन (पूजन ) और स्तुति करनेको भी कहा है। सच्चो पहिचान पूर्वक ही परम भक्ति उत्पन्न होती है, और सर्वत्रदेवकी सच्ची पहिचान हो वहाँ तो आत्माका स्वभाव लक्षगत हो जाता है, अर्थात् उसे दीर्घसंसार नहीं रहता है। इस प्रकार भगवानके दर्शनकी बातमें भी गहरा रहस्य है। मात्र ऊपर से मान ले कि, स्थानकवासी लोग मूर्तिको नहीं मानते और हम दिगम्बर जैन अर्थात् मूर्तिको मानने वाले हैं, ऐसे रूढ़िगत भावसे दर्शन करे, उसमें सच्चा लाभ नहीं होता, सर्यक्षदेवकी पहचान सहित दर्शन करे तो ही सच्चा लाभ होता है। (यह बात "सत्तास्वरूप” में बहुत विस्तारसे समझाई है) ____ अरे भाई ! तुझे आत्माके तो दर्शन करना नहीं आता और आत्माके स्वरूप को देखने हेतु दपर्णसमान ऐसे जिनेन्द्रदेवके दर्शन भी तू नहीं करता तो तू कहाँ जावेगा भैया ! जिनेन्द्रभगवानके दर्शन-पूजन भी न करे और तू अपनेको जैन कहलावे, ये तेरा जैनपना कैसा? जिस घरमें प्रतिदिन भक्तिपूर्वक देव-गुरुके दर्शन-पूजन होते हैं, मुनिवरों आदि धर्मात्माओंको आदरपूर्वक दान दिया जाता है-वह घर धन्य है; और इसके बिना घर तो स्मशानतुल्य है। अरे, वीतरागी सन्त इससे अधिक क्या करें ? ऐसे धर्मरहित गृहस्थाश्रमको तो हे भाई! समुद्र के गहरे पानीमें तिलांजलि दे देना! नहीं तो यह तुझे इबो देगा! धर्मी जीव प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान के दर्शनादि करते हैं। जिस प्रकार संसारका रागी जीव स्त्री-पुत्रादिके मुँहको अथवा चित्रको प्रेमसे देखता है, उसी प्रकार धर्मका रागी जीव वीतराग-प्रतिमाका दर्शन भक्तिसहित करता है। रागकी इतनी दशा बदलते भी जिससे नहीं बनती यह वीतरागमार्गको किस प्रकार साधेगा ? जिस प्रकार प्रिय पुत्र-पुत्रीको न देखे तो माताको बैन नहीं पड़ता, अथवा माताको न देखे तो

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