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भावकधर्म-प्रकाश ] जो परमभक्तिसे जिनेन्द्र-भगवानका दर्शन नहीं करता, तो इसका अर्थ यह हुमा कि इसे वीतरागभाव नहीं रुचता, और तिरनेका निमित्त नहीं रुचता; परन्तु संसारमें डूबनेका निमित्त रुचता है। जैसी रुचि होती है वैसे विषयकी तरफ रुचि जाये बिना नहीं रहती। इसलिये कहते हैं कि वीतरागी जिनदेवको देखते ही जिसे अन्तर में भक्ति नहीं उल्लसती, जिसे पूजा-स्तुतिका भाव नहीं उत्पन्न होता वह गृहस्थ समुद्र के बीच पत्थरको नावमें बैठा है। नियमसारमें पनप्रभु मुनि कहते हैं किहे जीव!
भवभयभेदिनि भगवति भवतः किं भक्तिरत्र न शमस्ति ?
तर्हि भवाम्बुधिमध्यग्राहमुखान्तर्गतो भवसि ॥१२॥
भवभयको छेदन करने वाले ऐसे इन भगवानके प्रति क्या तुझे भक्ति नहीं ?यदि नहीं तो तू भवसमुद्रके बीच मगरके मुखमें है।
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भक्ति नौका
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MDM आलम्बनं भवजले पततां जनानाम:
अरे, बड़े-बड़े मुनि भी जिनेन्द्रदेवके दर्शन और स्तुति करते हैं और यदि तुझे ऐसा भाव नहीं आता और एकमात्र पापमें ही रचापचा राता है तो तू भवसमुद्र में इब जावेगा, भाई ! इसलिये तुझे इस भवदुःखके समुद्र में नहीं बना हो और इससे तिरना हो तो संसारके तरफको तेरी रुचि बदलकर वीतरागी देव-गुरुकी तरफ तेरे परिणामको लगा; वे धर्मका स्वरूप क्या कहते हैं उसे समझ, उनके कहे हुए आत्मस्वरूपको रुचिमें ले; तो भवसमुद्रमेंसे तेरा छुटकारा होगा। 1४