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प्रावकधर्म-प्रकाश ] साधन होता है। श्रावक हो वहाँ ही यह सब होता है। इसलिये भव्य जीवोंको ऐसे उत्तम श्रावकका आदर-सत्कार करना चाहिये। 'संमताः' अर्थात् कि यह ए है, धर्मात्माओंको मान्य है, प्रशंसनीय है।
__ देखिये, जहाँ श्रावक रहते हों वहाँ जिनमन्दिर तो होना ही चाहिये। थोडे श्रावक हों और छोटा गाँव हो तो दर्शन-पूजन हेतु चाहे छोटा-सा ही चैत्यालय पहिले बनवावे। पूर्वकालमें कई श्रावकोंके घरमें ही चैत्यालय स्थापित करते थे। देखिये न, मूडबिद्री ( दक्षिण देश )में रत्नोंकी कैसी जिन-प्रतिमाएँ है ? ऐसे जिनदेषक दर्शनसे तथा मुनि आदिके उपदेश श्रवणसे पहिलेके बैंधे हुए पाप भणमें छूट जाते हैं। पहिले नो स्थान-स्थान पर ग्रामोंमें बीतगगी जिनमन्दिर थे, क्योंकि दर्शन बिना तो श्रावकको चले ही नहीं। दर्शन किये बिना खाना तो बासी भोजन समान कहा गया है। जहाँ जिनमन्दिर और जिनधर्म न हो वह गाँव तो स्मशानतुल्य कहा गया है। अतः जहाँ जहाँ श्रावक होते हैं यहाँ बिनमन्दिर होते है और मुनि श्रादि त्यागी धर्मात्मा वहाँ आया करते है, अनेक प्रकारके उत्सव होते हैं, धर्मचर्या होती है; और इसके द्वारा पापका नाश तथा म्वर्ग-मोक्षका साधन होता है। जिनपिम्प दर्शनसे निद्धत और निकाचित मिथ्यात्वकर्मके भी सैकड़ों टुकड़े हो जाते हैं ऐसा उल्लेख सिद्धान्तमें है; धर्मकी रुचिसहितकी यह बात है। 'अहो, यह मेरे बायकस्वरूपका प्रतिबिम्ब ! ऐसे भावसे दर्शन करने पर, सम्यग्दर्शन न हो तो नया सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है और अनादिके पापोंका नाश हो जाता है, मोक्षमार्ग खुल जाता है। गृहस्व-श्रावकों द्वारा ऐसे जिनमन्दिरकी और धर्मकी प्रवृत्ति होती है, अतः आचार्यदेव कहते हैं कि वे श्रावक धन्य है! गृहस्थावस्थामें रहने वाले भाई-बहिन भी जो धर्मात्मा होते हैं वे सज्जनों द्वारा आदरणीय होते है। प्राधिका भी जैनधर्मकी ऐसी प्रभावना करती है; वह श्राविका-धर्मात्मा भी जगत्के जीवों द्वारा सत्कार करने योग्य है। देखिये न, चेलनारानी ने जैनधर्मकी कितनी प्रभावना की? इसप्रकार गृहस्थावस्थामें रहनेवाले श्रावक-माविका अपनी लक्ष्मी मादि न्यौछावर करके भी धर्मको प्रभावना करते हैं। सन्तोंके हृदयमें धर्मकी प्रभावनाके भाव रहते हैं, धर्मकी शोभा हेतु धर्मात्मा-श्रावक अपना हदय भी अर्पण कर देते हैं ऐसी धर्मकी तीव लगन इनके हृदय में होती है। ऐसे आवकधर्मका यहाँ पमनन्दी स्वामीने इस अधिकारमें प्रकाश किया है-उद्योत किया है। इसका विस्तार और