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भवकर्म-कास]
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जिनेन्द्र-भक्तिवंत श्रावक धन्य है! F.... ..........
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श्रावक प्रगाढ़ जिनभक्तिसे जैनधर्मको शोभित करता है। 8 8 शांत दशा प्राप्त धर्मी जीव किमप्रकारके होते हैं और वीतारागी देष
गुरुके प्रति उनकी भक्तिका उल्लास कैसा होता है उसका भी जीवों को ज्ञान नहीं। इन्द्र जैसे भी भगवानके प्रति भक्तिसे करते हैं कि
हे नाथ ! इस वैभव-विलासमें रहा हुआ हमारा यह जीवन कोई जोवन 8 नहीं, सच्चा जीवन तो आपका है.......केवलज्ञान और अतीन्द्रिय भानन्द8 मय जीवनसे आप हो जी रहे हैं। 899999999903390 SSSSSSSSScess
काले दुःखमसंज्ञके जिनपतेधर्मे गते क्षीणां तुच्छे मामयिके जने बहुतरे मिथ्यान्धकारे सति । चैत्ये चैत्यगृहे च भक्तिसहितो यः सोऽपि नो दृश्यते
यस्तत्कारयते यथाविधि पुनर्मव्यः स वंद्यः सताम् ॥ २१ ॥ इस दुःखमा कालमें जब कि जिनेन्द्र भगवानका धर्म क्षीण होता नाता, जैनधर्मके माराधक धर्मात्मा-जीव भी बहुत थोड़े हैं और मिथ्यात्व-अंधकार पत फैल रहा है, जिनमन्दिर और जिन-प्रतिमाके प्रति भक्तिवन्त जीव भी गुत नहीं दिखते; ऐसे इस कालमें जो जीव विधिपूर्वक जिममन्दिर तथा जिन-प्रतिमा कराते हैं वे भव्य जीव सज्जनों द्वारा वंदनीय हैं।
जहाँ तीर्थकर भगवान विराजते हैं यहाँ तो धर्मकी अविरत धारा पती, चक्रवर्ती और इन्द्र जैसे इस धर्मकी आराधना करते है। परन्तु वर्तमानमें तो यहाँ जैमधर्म बहुत घट गया है। तीर्थकरोंका विरह, मुनिवरोंकी भी दुर्लभता, विपरीत मान्यताके पोषण करनेवाले मिथ्यामार्गों का मन्त नहीं, ऐसी विषमतले सम्पर्क
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