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[ श्रावकधर्म प्रकाशं
प्रचार करने जैसा है, अतः अपने प्रवचनमें यह अधिकार तीसरी बार पढ़ा जा रहा है । ( इस पुस्तकमें तीनों बारके प्रवचनोंका संकलन है )
देखिये, इस श्रावकधर्ममें भूमिका अनुसार आत्माकी शुद्धि तो साथ ही वर्तती है। पंचमगुणस्थानवर्ती भावक उत्तम देवगति सिवाय अन्य किसी गतिमें जाता नहीं - यह नियम है। स्वर्ग में जाकर वहाँ भी वह जिनेन्द्रदेवकी भक्ति-पूजन करता है। छठे सातवें गुणस्थानमें झूलते संत प्रमोदसे कहते हैं कि अहो ! स्वर्ग-मोक्षकी प्रवृत्तिका कारणरूप वह धर्मात्मा श्रावक हमें सम्मत है, गुणीजनों द्वारा आदरणीय है ।
भावक अकेला हो तो भी अपनी शक्तिअनुसार दर्शन हेतु जिनमन्दिर आदि चमचावे | जिसप्रकार पुत्र-पुत्रीके विवाहमें अपनी शक्तिअनुसार धन उमंगपूर्वक खर्च करता है, वहाँ अन्यके पास चंदा करानेके लिए जाता नहीं, उसीप्रकार धर्मी जीव जिनमंदिर आदि हेतु अपनी शक्तिअनुसार धन खर्च करता है। अपने पास शक्ति होते हुए भी धन न खरचे और अन्यके पास माँगने जाय - यह शोभा नहीं देता है । जिनमंदिर तो धर्मको प्रवृत्तिका मुख्य स्थान है। मुनि भी वहाँ दर्शन करने आते हैं। गाँवमें कोई धर्मात्माका आगमन हो तो वह भी जिनमंदिर तो जरूर जाता है । उत्तमकाल में तो ऐसा होता था कि मुनिवर आकाशमें गमन करते समय नीचे मंदिर देखकर दर्शन करने आते थे, और महान् धर्मप्रभावना होती थी । अहो, ऐसे वीतरागी मुनिका वर्तमानमें तो दर्शन होना कठिन है !
वन में विचरण करने वाले सिंह जैसे मुनिवरोंके दर्शन तो बहुत दुर्लभ हैं; परन्तु धर्मकी प्रवृति धर्मात्मा भावकों द्वारा चला करती है इसलिये ऐसे भाषक प्रशंसनीय है ।