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[ भावकवर्म-प्रकाश बीचमें भी जो जीव धर्मके प्रेमको स्थिर रखकर भक्तिसे जिनमन्दिर मादि बनवाते है वे धन्य है ! स्तवनमें भी आता है कि
चैत्यालय को करें धन्य सो श्रावक कहिये,
तामें प्रतिमा घरें धन्य सो भी सरदहिये. पूर्वमें तो भरत चक्रवर्ती सरीखेने भी कैलास पर्वत पर तीन चौबीसी तीर्थंकरोंके रत्नमय जिनबिम्बोंकी स्थापना की थी। दूसरे भी अनेक बड़े-बड़े राजा-महाराजा और धर्मात्माओंने विशाल जिनमंदिर बनवाये थे। देखो तो, मूडबिद्रोमें “त्रिभुवनतिलक चूडामणि" जिनमन्दिर कितना बड़ा है। जिसके एक हजार तो स्तंभ है।
और महामूल्य रत्नोंकी मूर्तियाँ भी वहाँ हैं, ये भी धर्मात्मा श्रावकोंने दर्शनहेतु स्थापी है। भवणबेलगोलामें भी इन्द्रगिरि पहाड़में खुदी हुई ५७ फीट ऊँची बाहुबली भगवानकी प्रतिमा कितनी अद्भुत है ! अहा, जैसे वीतरागताका पिण्ड हो! पवित्रता और पुण्य दोनों इसमें दिखाई दे रहे हैं। इस प्रकार श्रावक बहुत भक्तिसे जिनबिम्बोंकी स्थापना और जिनमंदिरका निर्माण कराता है । आजकाल तो यहाँ अनार्यवृत्ति वाले बहुत और आर्यजीव थोड़े, उसमें भी जैन थोड़े, उसमें भी धर्मके जिज्ञासु बहुत थोड़े, मौर उनमें भी धर्मात्मा और साधु तो अत्यन्त विरले । वस्तुतः वे तीनोंकालमें विरल है परन्तु वर्तमानमें यहाँ तो बहुत ही विरले हैं । जहाँ देखो वहाँ कुदेव और मिथ्यात्व का जोर फैला हुमा है। ऐसे कलिकालमें भी जो जीव भक्तिपूर्वक जिनालय और जिनबिम्बकी विधिपूर्वक स्थापना कराते हैं वे जिनदेवके भक्त, सम्यग्दृष्टि, धर्मके रुचिवंत है, और ऐसे धर्मी जीवोंकी सज्जन लोग प्रशंसा करते हैं।
देखो भाई, जिनमार्गमें वीतराग-प्रतिमा अनादिकी है। स्वर्गमें शाश्वत जिनप्रतिमायें है, नन्दीश्वरमें हैं, मेरुपर्वत पर हैं । पांचसौ धनुषके रत्नमय जिनबिम्ब ऐसे अलौकिक हैं-मानों कि साक्षात् तीर्थकर हों और अभी वाणी खिरेगी !! कार्तिक, फाल्गुन और अषाढ मासकी भष्टाह्निकामें इन्द्र और देव नन्दोश्वर जाकर महा भक्तिपूर्वक दर्शन-पूजन करते हैं । शाखोंमें अनेक प्रकारके महापूजन कहे है-इन्द्र द्वारा पूजा हो वह इन्द्रध्वज पूजा है, चक्रवर्ती किमिच्छक दानपूर्वक राजाओंके साथ जो महापूजा करता है उसे कल्पद्रुम पूजा कहते हैं, अष्टान्हिकामें जो विशेष पूजा हो उसे माराम्हिक पूजन कहते हैं, मुकुटबद्ध राजा जो पूजन कराते हैं उसे सर्वतोभद्र मथवा महामहः पूजा कहते हैं, प्रतिदिन भावक जो पूजा करे वह नित्यमहः पूजन है।
भरत चक्रवर्ती महापूजन रचाते थे उसका विशद वर्णन आदिपुराणमें माता है। सूर्यके अन्दर शाश्वत जिनबिम्ब है, भरत चक्रवर्तीको चक्षु संबंधी जानका