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भाषकधर्म-प्रकाश
[१ जिस प्रकार चतुर किसान बीजकी रक्षा करके पाकीका अनाज भोगता है, और बीज बोता है उसके हजारोंगुने दाने पकते है, उसी प्रकार धर्मोजीव पुण्यफलरूप लक्ष्मी वगैरह वैभवका उपभोग धर्मकी रक्षापूर्वक करता है, और दानानि सत्कार्योमें लगाता है, जिससे उसका फल बढ़ता जाता है और भविष्यमें तीर्थकरदेवका समवसरण तथा गणधरादि संत-धर्मात्मामोंका योग वगैरह धर्मके उत्तम निमित्त मिलते हैं, वहाँ आत्मस्वरूपको साधकर, बाह्यपरिग्रह छोड़कर, मुनि होकर, केवलज्ञानरूप अनन्त आत्मवैभवको प्राप्त करता है।
पुण्यके निषेधकी भूमिकामें ( अर्थात् वीतरागभाषको साधते साधते) बानी को अनन्तगुना पुण्य बंधता है। पुण्यकी रुचिवाले अज्ञानीको जो पुण्य बंधे उससे पुण्यका निषेध करनेवाले ज्ञानीकी भूमिकामें जो पुण्य बंधे वह अलौकिक होता है जिससे तीर्थकर-पद मिले, चक्रवर्ती-पद मिले, बरदेव-पर मिले ऐसा पुण्य आराधक जीवको ही होता है, रागकी रुचि घाले विराधकको ऐसा पुण्य नहीं बँधता । और पुण्यका फल आवे नब भी ज्ञानी उन संयोगोंको अनुष-भणभंगुर बिजली जैसे चपल जानकर उनका त्याग करता है, और भव ऐसे सुखधाम आत्माको साधने हेतु सर्वसंगत्यागी मुनि होता है और मोभको साधता है। पहलेसे ही दानकी भावना द्वारा राग घटाया था उससे आगे बढ़ते बढ़ते सर्वमंग छोड़कर मुनि होता है । परन्तु पहलेसे ही गृहस्थपने में दानादि द्वारा थोड़ा भी गग घटाते जिससे नहीं बनता, रागरहित स्वभाव कग है वह लक्ष्य में भी नहीं लेता. वह सर्व रागको छोड़कर मुनिपना कहाँसे लेगा ?-इस अपेक्षासे मोभका प्रथम कारण दान कहा गया है।
मानी जानता है कि, एक तो लक्ष्मी इत्यादि बाह्यसंयोगमें मेरा सुख जरा भी नहीं; फिर संयोग भणभंगुर है, और उसका आना-जाना तो पूर्वके पुण्य-पापके आधीन है। पुण्य हो तो, दाममें खर्च करनेसे लक्ष्मी समाप्त नहीं होती, और पुण्य समाप्त हो तो लाल उपाय द्वारा भी वह रहती नहीं। ऐसा मानते हुये यह महापुरुष धन वगैरह छोड़कर मुनि होता है; और सर्व परिप्रह छोड़कर मुनिपना न लेते बने तबतक उसका उपयोग दानादिमें करता है। इस प्रकार त्याग अथवा दान-ये दो ही लक्ष्मीके उपयोगके उत्तम मार्ग है। अज्ञानी तो परिप्रहमें सुख माननेसे उसकी ममता करके उसे साथमें ही रखना चाहता है। " जितना बढ़े परिग्रह उतना बढ़े सुख" -ऐसी अज्ञानीको भ्रमणा है। जानी जानता है कि जितना परिप्रह छुटे उतना सुख मात्र वायत्यागको बात नहीं: अंदरका मोह छटे तब परिग्रह छूटा कहनेमें माता।