________________
[भाषाधर्म साल महा, चैतन्यका आनन्दनिधान जिसने देखा उसे रागके फलम्प बाह्य वैभव तो तुणतुल्य लगता है। ऋषभदेव भगवानकी स्तुतिमें पननंदी स्वामी कहते हैं कि अहो माय! दिव्यध्वनि द्वारा आपने आत्माके अचिन्त्य निधानको स्परूपसे बताया, तो मब इस जगत्में ऐसा कौन है कि उस निधानके खातिर इस राजपाटके निधानको
तृणसमान समझकर न त्यागे?-और चैतन्यनिधानको न साधे! देखो तो, बाहुबली जैसे बलवान योद्धा गज. सम्पदा छोड़कर इस प्रकार चले गये कि पीछे फिरकर भी नहीं देखा कि राज्यका क्या हाल है ! चैतन्यकी साधनामें अदिगरूपसे ऐसे लीन हुए कि खड़े खड़े ही केवल. ज्ञान प्राप्त कर लिया। शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ जैन चक्रवर्ती-तीर्थकर वैसे ही भग्तचक्रवर्ती, पाण्डव आदि महापुरुष भी क्षणमात्रमें राज्य वैभव छोड़कर मुनि हुए; उनके जीवनमें प्रारम्भसे ही भिन्नताकी भावनाका घोलन था । वे रागसे और राजसे पहले
हो से अलिप्त थे, इसलिये क्षणभरमें हो जिसप्रकार सर्प कांचली उतारता है उसी प्रकार के राज्य और राग दोनोंको छोड़कर मुनि हुए और उन्होंने स्वरूपका साधन किया। अज्ञानीको तो साधारण परिप्रह की ममता छोड़नी भी कठिन पड़ती है। चक्रवर्तीकी सम्पदाको तो क्या बात ! परन्तु उन्होंने चैतन्यसुखके सामने उसे भो तुच्छ समझकर एक भणमें छोड़ दी। इसलिये कवि कहते हैं कि
छयानवे हजार नार छिनकमें दीनी छार; अरे मन ! ता निहार, काहे तू डरत है ? छहों खण्डकी विभूति छांड़त न बेर कीनीं, चमू चतुरंगन सों नेह न धरत है। नौ निधान आदि जे चौदह रतन त्याग, देह सेती नेह तोड़ वन विचरत है; ऐसो विभौ न्यागत विलम्ब जिन कीन्हीं नाही,
तेरे कहो केती निधि ? सोच क्यों करत है ? मरे, लक्ष्मी और जीवन अत्यन्त ही अस्थिर है, उसका क्या भरोसा ? लक्ष्मीका दूसरा नाम 'चपला' कहा है, क्योंकि वह इन्द्रधनुष जैसी चपल है-क्षणभंगुर है।